20 October, 2013

रही हिलोरें मार, निकम्मी रविकर चाहें

लखनऊ से-
(१)
जाने ये क्या हो रहा, सपने पर इतबार । 
मर्यादा स्वाहा हुई, जीता धुवाँ-गुबार । 
जीता धुवाँ गुबार, खुदाई चालू आहे । 
रही हिलोरें मार, निकम्मी रविकर चाहें । 
बाबा तांत्रिक ढोंग, लगे फिर रंग जमाने । 
होय हाथ में खाज, खोजते लोग खजाने ॥ 

(२)
पारा बबलू का चढ़े, चढ़ा रहा आस्तीन । 
साँप भरे आस्तीन में, एक एक ले बीन । 
एक एक ले बीन, सामने बीन बजाये । 
भैंस खड़ी पगुराय, भैंस  पानी में जाए । 
लड़ता हारा युद्ध, आज फिर कर्ण हमारा । 
शर शैय्या पे भीष्म, देश भी पारी पारा - 

1 comment:

  1. दोनों कुण्डियाँ बेहतरीन |

    मेरी नई रचना:- "झारखण्ड की सैर"

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