भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी) सर्ग-१ प्रस्तावना
भगवती शांता परम (मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सहोदरी)-सर्ग-२ शिशु-शांता
सर्ग-3
भाग-2
कौला और दालिम की कथा
एवं
कन्या का नामकरण
कौशल्या दशरथ कहें, रुको और महराज |
चंपा रानी रोम्पद, ज्यों चलते रथ साज ||
राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान |
चलने की आज्ञा मिले, हमको काल्ह विहान ||
सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार |
अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार ||
दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव |
सरयू में तैयार है, बड़ी राजसी नाव ||
धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |
चार दिनों की यात्रा, काहे होत अधीर ||
चंपानगरी दूर है, पूरे दो सौ कोस |
उत्तम यह प्रस्ताव है, दिखे नहीं कुछ दोष ||
पहुंचे उत्तम घाट पर, थी विशाल इक नाव |
नाविक-गण सब विधि कुशल, जाने नदी बहाव ||
बैठे सब जन चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |
घोड़े-रथ तट पर चले, लेकर सैनिक चंद ||
धीरे धीरे गति बढ़ी, सीमा होती पार |
गंगा में सरयू मिली, संगम का आभार ||
चार घरी रूककर वहां, पूजें गंगा माय |
सरयू को परनाम कर, देते नाव बढ़ाय ||
हर्ष और उल्लास का, देखा फिर अतिरेक |
नगर रास्ते में मिला, अंगदेश का एक ||
धरती पर उतरे सभी, आसन लिया जमाय |
नई कुमारी का करें, स्वागत जनगण आय |
लगे कुमारी खुब प्रसन्न, कौला रखती ख्याल |
धरती पर धरती कदम, रानी रही संभाल ||
वैद्यराज की औषधी, वह गुणकारी लेप |
रस्ते भर मलती चली, तीन बार खुब घेप ||
आठ माह की बालिका, मंद-मंद मुसकाय |
कंद-मूल फल प्रेम से, अंगदेश के खाय |
रानी के संग खेलती, बाला भूल कलेश ||
राज काज के काम कुछ, निबटा रहे नरेश |
एक अनोखा वाद था, नगर प्रमुख के पास |
बात सौतिया डाह की, विधवा करती नाश ||
सौतेला इक पुत्र है, सौजा के दो आप |
इक खाया कल बाघ ने, करती घोर विलाप ||
रो रो कर वह बक रही, सौतेले का दोष |
यद्दपि वह घायल पड़ा, बेहद है अफ़सोस ||
जान लड़ा कर खुब लड़ा, हुआ किन्तु बेहोश |
बचा लिया इक पुत्र को, फिर भी न संतोष ||
बड़ी दिलेरी से लड़ा, देखा चौकीदार |
बड़े पुत्र को ले भगा, फिर भी वह खूंखार ||
सौजा को विश्वास है, देने को संताप |
सौतेले ने है किया, घृणित दुर्धुश पाप ||
घर न रखना चाहती, वह अब अपने साथ |
ईश्वर की खातिर अभी, न्याय कीजिए नाथ ||
दालिम को लाया गया, हट्टा-कट्टा वीर |
चेहरे पर थी पीलिमा, घायल बहुत शरीर ||
सौजा से भूपति कहें, दालिम का अपराध |
नगर निकाला सामने, किन्तु रहे हितसाध ||
दालिम से मुड़कर कहें, जा जहाज में बैठ |
छू ले माता के चरण, बेमतलब मत ऐंठ ||
राजा पक्के पारखी, है हीरा यह वीर |
पुत्री का रक्षक लगे, कौला की तकदीर ||
सेनापति से यूँ कहें, रुको यहाँ कुछ रोज |
नरभक्षी से त्रस्त जन, करिए उसकी खोज ||
जीव-जंतु जंगल नदी, सागर खेत पहाड़ |
बंदनीय हैं ये सकल, इनको नहीं उजाड़ ||
रक्षा इनकी जो करे, उसकी रक्षा होय |
शोषण गर मानव करे, जाए जल्द बिलोय ||
केवल क्रीडा के लिए, मत करिए आखेट |
भरता शाकाहार भी, मांसाहारी पेट ||
जीव जंतु वे धन्य जो, परहित धरे शरीर |
हैं निकृष्ट वे जानवर, खाएं उनको चीर ||
नरभक्षी के लग चुका, मुँह में मानव खून |
जल्दी उसको मारिये, जनगण पाय सुकून ||
अगली संध्या में करें, रजधानी परवेश |
अंग-अंग प्रमुदित हुआ, झूमा पूरा देश ||
गुरुजन का आशीष ले, मंत्री संग विचार |
नामकरण की शुभ तिथी, तय अगले बुधवार ||
नामकरण के दिन सजा, पूरा नगर विशेष |
ब्रह्मा-विष्णु देखते, नारद उमा महेश ||
महा-पुरोहित कर रहे, थापित महा-गणेश |
राजकुमारी आ गई, आये अतिथि विशेष ||
रानी माँ की गोद में, चंचल रही विराज |
टुकुर टुकुर देखे सकल, इत-उत होते काज ||
कौला दालिम साथ में, राजकुमारी पास |
हम दोनों कुछ ख़ास हैं, करते वे एहसास ||
महापुरोहित बोलते, हो जाओ सब शांत |
शान्ता सुन्दर नाम है, फैले सारे प्रांत ||
शान्ता -शान्ता कह उठा, वहाँ जमा समुदाय |
मात-पिता प्रमुदित हुए, कन्या खूब सुहाय ||
कार्यक्रम सम्पन्न हो, विदा हुए सब लोग |
पूँछे कौला को बुला, राजा पाय सुयोग ||
शान्ता की तुम धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |
दालिम लगता है भला, रखे तुम्हे खुशहाल ||
तुमको गर अच्छा लगे, दिल में तेरे चाह |
सात दिनों में ही करूँ, तेरा उससे व्याह ||
कौला शरमाई तनिक, गई वहाँ से भाग |
दालिम की किस्मत जगी, बढ़ा राग-अनुराग ||
दोनों की शादी हुई, चले एक ही राह |
शान्ता के प्रिय बन रहे, राजा केर पनाह ||
बहुत सुन्दर चल रहा है प्रसंग्।
ReplyDeleteमन को बाँधने वाला प्रसंग और प्रस्तुती भी बहुत ही अच्छी है
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