सर्ग-4
भाग-4
अंग-देश में अकाल
Shanta (Ramayana)
Shanta is a character in the Ramayana. She was the daughter of Dasharatha and Kausalya, adopted by the couple Rompad and Vershini.[1] Shanta was a wife of Rishyasringa.[1] The descendants of Shanta and Rishyasringa are Sengar Rajputs who are called the only Rishivanshi rajputs.Life
Shanta was a daughter of Maharajah Dasharatha and Kausalya, but was adopted by the king (rajah) of Angadesh, Raja Rompad, and her aunt Vershini, an elder sister of Kausalya. Vershini had no children, and, when at Ayodhya, Vershini jokingly asked for offspring. Dasharatha agreed to allow the adoption of his daughter. However, the word of Raghukul was binding, and Shanta became the princess of Angadesh.Shanta was educated in Vedas, Art and Craft, and was considered to have been very beautiful. One day, while her uncle, the king Rompad, was busy in conversation with Shanta, a Brahmin came to ask for help in cultivation in the days of the monsoon. Rompad did not pay attention to the Brahmin's plight. This irritated and enraged the Brahmin, who left the kingdom. Indradev, the god of rain, was unable to bear the insult of his devotee, so there was little rainfall during the monsoon season. The Rajah called Rishyasringa to perform yagya, he agreed to perform yagya and during the recitation of it, it rained heavily. The public rejoiced and there were festivals in Angadesh. To pay honour to their saviour, Dashratha, along with Kausalya, Vershini, and Rompad, decided to give the hand of Shanta to Rishyasringa.
As Dashratha had no children after Shanta, he wanted a son to continue his legacy and to enrich his royal dynasty. He called Rishyasringa to perform a putra kameshthi yagya to beget progeny, and as the consequence of the said Yagya were born: Rama, Bharata, and the twins Lakshmana and Shatrughna.[2]
बिटिया वेद पुराण में, रही पूर्णत: दक्ष |
शिल्प-कला में भी निपुण, मंत्री के समकक्ष ||
उपवन में बैठी करें, राजा संग विचार |
अंगदेश की किस तरह, महिमा बढ़े अपार ||
चर्चा में दोनों हुए, पूर्णतया तल्लीन |
प्रजा रहे सुख शान्ति से, धरती कष्ट विहीन ||
अंग भूमि से दूर हो, असुरों का संत्रास |
दूर भूख भय से रहे, करने उचित प्रयास ||
इसी बीच पहुँचे हुवे, पहुँचे विप्र महान |
अपने आश्रम के लिए, लेने कृषि सामान ||
अनदेखी राजा करे, क्रोधित कहते साधु |
घोर उपेक्षा तू करे, है अक्षम्य अपराधु ||
हरे-भरे इस राज्य में, होगी नहिं बरसात |
शापित करके चल पड़े, किया जबर आघात ||
जाते देखा विप्र को, दूर हुआ अज्ञान |
क्षमा क्षमा भूपति कहें, जूँ रेंगे नहिं कान ||
भादों की बरसात भी, ठेंगा गई दिखाय |
शिल्प-कला में भी निपुण, मंत्री के समकक्ष ||
उपवन में बैठी करें, राजा संग विचार |
अंगदेश की किस तरह, महिमा बढ़े अपार ||
चर्चा में दोनों हुए, पूर्णतया तल्लीन |
प्रजा रहे सुख शान्ति से, धरती कष्ट विहीन ||
अंग भूमि से दूर हो, असुरों का संत्रास |
दूर भूख भय से रहे, करने उचित प्रयास ||
इसी बीच पहुँचे हुवे, पहुँचे विप्र महान |
अपने आश्रम के लिए, लेने कृषि सामान ||
अनदेखी राजा करे, क्रोधित कहते साधु |
घोर उपेक्षा तू करे, है अक्षम्य अपराधु ||
हरे-भरे इस राज्य में, होगी नहिं बरसात |
शापित करके चल पड़े, किया जबर आघात ||
जाते देखा विप्र को, दूर हुआ अज्ञान |
क्षमा क्षमा भूपति कहें, जूँ रेंगे नहिं कान ||
भादों की बरसात भी, ठेंगा गई दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||
झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||
खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||
जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रासक त्रिशुच, त्रायमाण त्रुटि त्राण ||
अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||
शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, जल्दी में तैयार ||
शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||
दुःख की घड़ियाँ गिन रहे, घडी-घडी सरकाय ।
धीरज हिम्मत बुद्धि से, जाएगा विसराय ।
जाएगा विसराय, लगें सर-सरिता गोते ।
धीरज हिम्मत बुद्धि से, जाएगा विसराय ।
जाएगा विसराय, लगें सर-सरिता गोते ।
लो मन को बहलाय, धीर सज्जन नहिं खोते ।
शाश्वत चलता चक्र, घूम लाये दिन बढ़िया ।
होना मत कमजोर, गिनों कुछ दुख की घड़ियाँ ।।
भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
औषधि बांटे वैद्य जी, रूपा शांता प्यार ||
मिट्टी की पट्टी करे, जहाँ रोग उपचार |
शुभ दीदी का शुद्ध चित्त, ठीक करे बीमार |
ठीक करे बीमार, स्वयं भी रहे निरोगी |
उदाहरण ना अन्य, मिलें ना ऐसे योगी |
बड़े भयंकर रोग, जहाँ गुम सिट्टी-पिट्टी |
जाय व्यवस्था हार, वहाँ धरती की मिट्टी ||
कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, रहती मन बहलाय ||
संसाधन सा जानिये, संयुत कुल परिवार |
गाढ़े में ठाढ़े मिलें, बिना लिए आभार |
बिना लिए आभार, कृपा की करते वृष्टी |
दादा दादी देव, दुआ दे दुर्लभ दृष्टी |
सच्चे रिश्ते मुफ्त, हमेशा है अपनापन |
संग सकल परिवार, जुटाए सौ संसाधन |
गाढ़े में ठाढ़े मिलें, बिना लिए आभार |
बिना लिए आभार, कृपा की करते वृष्टी |
दादा दादी देव, दुआ दे दुर्लभ दृष्टी |
सच्चे रिश्ते मुफ्त, हमेशा है अपनापन |
संग सकल परिवार, जुटाए सौ संसाधन |
कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||
करता हैं जो पुन्य-कर्म, संस्कार आभार ।
तपे जेठ दोपहर की, मचता हाहाकार ।
मचता हाहाकार, पेड़-पौधे कुम्हलाये ।
जीव जंतु जब हार, बिना जल प्राण गँवाए ।
हे मानव तू धन्य , कटोरी जल की भरता ।
दो मुट्ठी भर कनक , दया खग-कुल पर करता ।।
तपे जेठ दोपहर की, मचता हाहाकार ।
मचता हाहाकार, पेड़-पौधे कुम्हलाये ।
जीव जंतु जब हार, बिना जल प्राण गँवाए ।
हे मानव तू धन्य , कटोरी जल की भरता ।
दो मुट्ठी भर कनक , दया खग-कुल पर करता ।।
अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||
धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||
कैकय का गेंहूँ वणिक, बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज बँटवा रहे, खुद से धान तमाम ||
१)
अत्याधिक हुशियार हैं, दुनिया मूर्ख दिखाय।
जोड़-तोड़ से हर जगह, लेते जगह बनाय ।।
२)
सचमुच में हुशियार हैं, हित पहलें ले साध ।
कर्म वचन में धार है , बढ़ते रहें अबाध ।।
३)
इक बन्दा सामान्य है, साधे जीवन मूल ।
कुल समाज भू देश हित, साधे सरल उसूल ।
४)
इस श्रेणी रविकर पड़ा, महामूर्ख अनजान ।
दुनियादारी से विलग, माने चतुर सयान ।।
अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ??
अंतर-मन से बतकही, होती रहती मौन ।
सिंहावलोकन कर सके, हो अतीत न गौण ।
हो अतीत न गौण, जांच करते नित रहिये ।
सिंहावलोकन कर सके, हो अतीत न गौण ।
हो अतीत न गौण, जांच करते नित रहिये ।
चले सदा सद्मार्ग, निरंतर बढ़ते रहिये ।
परखो हर बदलाव, मुहब्बत अपनेपन से ।
रहे अबाध बहाव, प्रेम-सर अंतर्मन से |लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||
किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||
लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||
शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||
नथुनी संग सुनार के, करती नित गुणगान ।
सुन्दर काया जो दिया, भूली वो नादान ।
भूली वो नादान, नाक नथुनी का अन्तर ।
लागे भला सुनार, याद न करती ईश्वर ।
अगर कटे यह नाक, करेगी क्या तू अगुनी ।
प्रकट करो आभार, रखे प्रभु नकुना नथुनी ।।
कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||
सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||
भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||
शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||
तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||
रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||
सिलवट पर पिसता रहा, याद वाद रस प्रेम ।
ऐ लोढ़े तू रूठ के, भाँड़ रहा है नेम ।
भाँड़ रहा है नेम, स्नेह शाश्वत नहिं छूटे ।
वासर ज्यूँ अखरोट, नहीं तेरे बिन फूटे ।
पाता था नित चैन, लुढ़क जो बदले करवट ।
बिन तेरे दिन रैन, तड़पता रहता सिलवट ।।
शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||
बंधन काटे ना कटे, कट जाए दिन-रैन ।
विकट निराशा से भरे, निकले दीदी बैन ।
निकले दीदी बैन, चैन मन को नहिं आये ।
विकट निराशा से भरे, निकले दीदी बैन ।
निकले दीदी बैन, चैन मन को नहिं आये ।
न्योछावर सर्वस्व, बड़ी बगिया महकाए ।
फूलों को अवलोक, लोक में खुशबू चन्दन ।
नारी मत कर शोक, मान ले मैया बंधन ।। शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||
कैसी शाळा चल रही, कितने कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, उनको करे प्रणाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक फिर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे यह रुद्राक्ष |
रूपा सुनके यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, गए सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
गुरुवर ! दीदी भेजती, यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, रक्खूँ पौध बनाय ||
कैसी शाळा चल रही, कितने कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, उनको करे प्रणाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक फिर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे यह रुद्राक्ष |
रूपा सुनके यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, गए सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
गुरुवर की होवे कृपा, मिले मार्ग-निर्देश |
शंकर के दर्शन सुलभ, चढ़ने में क्या क्लेश ??
शंकर के दर्शन सुलभ, चढ़ने में क्या क्लेश ??
चढ़ने में क्या क्लेश, सीड़ियाँ चढ़ते जाएँ ।
जय जय जय गुरुदेव, खटाख़ट बढ़ते जाएँ ।
बुद्धू पंगु-गंवार, भक्त भोला भा रविकर ।
सर-सरिता गिरि-खोह, कहाँ बाधा हैं गुरुवर ।।गुरुवर ! दीदी भेजती, यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, रक्खूँ पौध बनाय ||
बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteआभार
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteसुन्दर..,अति सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteहार्दिक आभार,रविकर जी.
ReplyDeleteहरे-भरे इस राज्य में, होगी नहिं बरसात |
शापित करके चल पड़े, किया जबर आघात ||
बेहद सटीक और प्राकृत चित्रण प्रसंग का .
ReplyDeleteरविवार, 23 सितम्बर 2012
ब्लॉग जगत में शब्द कृपणता ठीक नहीं मेरे भैया ,
ब्लॉग जगत में शब्द कृपणता ठीक नहीं मेरे भैया ,
नाव भंवर में अटक गई तो ,कोई नहीं नहीं खिवैया |
विषय बड़ा सपाट है अभिधा में ही आगे बढेगा ,लक्षणा और व्यंजना की गुंजाइश ही नहीं मेरे भैया .चिठ्ठा -कारी भले एक व्यसन बना कईओं का ,फिर भी भैया सहजीवन है यहाँ पे छैयां छैयां
.चल छैयां छैयां छैयां छैयां .आ पकड मेरी बैयाँ बैयाँ .
क्यों शब्द कृपण दिखता है रे ! कन्हैयाँ?
धन कंजूस चल जाता है .भई किसी का कुछ ले नहीं रहा ,अपना फायदा कर रहा है .सीधा सा गणित है कंजूसी का :मनी नोट स्पेंट इज मनी सेव्ड .लेकिन यहाँ मेरे राजन यह फार्मूला लगाया तो सारे समर्थक ,अभी तलक टिपियाए लोग आपके दायरे से बाहर आ जायेंगें .शब्द कृपणता आपको आखिर में निस्संग कर देगी .आप भले "निरंतर ",लिखें "सुमन" सा खिलें ,
साथ में चिठ्ठा -वीर और बिना बघनखे धारे चिठ्ठा -धीर दिखें .आखिर में कुछ होना हवाना नहीं है सिवाय इसके -
चल अकेला चल अकेला ,चल अकेला ,तेरा "चिठ्ठा "कच्चा फूटा राही चल अकेला .
यहाँ कुछ लोग आत्म मुग्ध दिखतें हैं .आत्म संतुष्ट भी .महान होने का भी भ्रम रखतें हैं/रखती हैं .आरती करो इनकी करो इनकी "वंदना "हो सकता है हों भी महान .शिज़ोफ्रेनिक भी तो हो सकते है .मेनियाक फेज़ में भी हो सकतें हैं बाई -पोलर इलनेस की ,मेजर -डिप्रेसिव -डिस -ऑर्डर की ..
ये चिठ्ठा है मेरे भाई ,अखबार की तरह एक दिनी अवधि है इसकी. बाद इसके कूड़े का ढेर .
इतनी अकड काहे की ?
निरभिमान बन ,मत बन शब्द कृपण .आपके दो शब्द दूसरे को सारे दिन खुश रख सकतें हैं .
शब्दों से ही चलती है ज़िन्दगी प्यारे .
कुछ शब्द हम अपने गिर्द पाल लेतें हैं .
"अपनी किस्मत में यही लिखा था भैया ,अपनी तो किस्मत ही फूटी हुई है ,कोई हाल पूछे तो कहतें हैं बीमार हूँ भैया "-बस तथास्तु ही हो जाता है .
बस इतना ध्यान रख तुझे लेके कोई ये न कहे मेरे प्रियवर तू मेरी टिपण्णी को तरसे .सारे दिन तेरा जिया धडके ...
और तू गाये :जिया बे -करार है ,छाई बहार है आजा मेरे टिपिया तेरा इंतज़ार है .
यहाँ प्यारे! आने- जाने का अनुपात सम है .स्त्री -पुरुष की तरह विषम नहीं .तेरा चिठ्ठा भी प्यारे कन्या भ्रूण की तरह किसी दिन कूढ़े के ढेर पे मिल सकता है .तू मेरे घर आ! मैं आऊँ तेरे. .जितनी मर्जी बार आ ,खाली हाथ न आ .भले मानस दो चार शब्द ला .
पटक जा मेरे दुआरे !
गुड़ न दे, गुड़ सी बात तो कह .
एक टिपण्णी का ही तो सवाल है जो दे उसका भला ,जो न दे उसका भी बेड़ा रामजी पार करें .
राम राम भाई !
सुन !इधर आ !
मत शरमा !
जिसने की शरम उसके फूटे करम
शर्माज आर दा मोस्ट बे -शर्माज . .
"मौन सिंह" मत बन .
इटली का कुप्पा सूजा मत दिख .
निर्भाव न दिख ,भाव भले ख़ा ,भावपूर्ण दिख .
प्यार कर ले नहीं तो पीछे पछतायेगा .
साईबोर्ग मत बन ,होमो -सेपियन बन ,
सीढ़ी -दर-सीढ़ी ऊपर की तरफ चढ़ ,
शब्द कृपण मत बन !
चढ़ लोगों की आँखों में चढ़ .
दिल में जगह बना सबकी !
खिलखिला के हँस !
उल्लेखित थीम पर आशु कविता चाहिए दाता .दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रख्खे .
ReplyDeleteइतिहास की सर्वथा उपेक्षित पात्र को लेकर आपने एक अद्भुत कृति रचा है।
ReplyDeleteप्रस्तुत अंक में दुर्भीक्ष की मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत की है आपने।