मामी मेरी मर रही, रहे दूसरी खोज |
महिला मित्रों से मिलें, मामा माहिल रोज ||
बाहर का चस्का लगा, युवा मित्र ले साथ |
मरघट पर जलता सगा, रहा सेकता हाथ ||
पार्क-रेस्तरां घूमते, घर में रुकना पाप |
रात गई फिर झूम के, लौटा बेढब बाप ||
युवा वर्ग से कर रहे, ज्यादा की उम्मीद |
बड़े ही जबकि कर रहे, मिट्टी रोज पलीद ||
व्यवसायिक एप्रोच हो, आगे बढ़ता जाय |
सारोकार समाज के, सेते धक्का खाय ||
सहज,स्मरणीय,हास्यपूर्ण और उद्धृत करने योग्य!
ReplyDeleteacchi abhivaykti...
ReplyDeleteसुन्दर रोचक दोहे...
ReplyDeleteसादर...
आपने बिलकुल सही लिखा है ..
ReplyDeleteरविकर जी आपकी अभिव्यक्ति रोचक व्यंग्य प्रस्तुत करती बहुत
ReplyDeleteअच्छी लगी.
मेरे ब्लॉग पर आप आये ,इसके लिए बहुत बहुत आभार.
कृपया, स्नेह बनाये रखियेगा.
नवरात्रि के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ.
Shri maan ji Aapne meri post ko saraha . Dhanya huye bhag hamare .aapka bahut-bahut dhanyawad.
ReplyDeleteवाह....बढ़िया लिखा है भाई......
ReplyDeleteye kavita aaina hai jo haqiqat ko bayan kr rhi hai.
ReplyDeleteबिलकुल झक्कास !
ReplyDeleteबड़ा ही रोचक अंदाज़ होता है आपका.
ReplyDeleteयुवा वर्ग से कर रहे, ज्यादा की उम्मीद |
ReplyDeleteबड़े ही जबकि कर रहे, मिट्टी रोज पलीद ||
सन्देश देती हुई रचना आभार ....