भाग-3
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||
ध्यान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||
ध्यान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||
नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||
मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||
व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||
सावन में पूरे हुए, पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||
कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||
ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||
करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||
आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||
मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना, राखी का त्योहार ||
स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||
दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे देत विसार ||
पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||
शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||
अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||
दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे देत विसार ||
पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||
शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||
अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||
बारह बाला घर गईं, थी जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||
नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||
दस की बाला को सिखा, निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||
वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||
बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||
दस की बाला को सिखा, निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||
वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||
बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||
सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||
इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||
जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||
बर्बादी खाद्यान की, लो इकदम से रोक |
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||
गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उदबोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||
दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||
और हजारों गुनी है, इक माता की शान |
उनकी शिक्षा सर्वदा, उत्तम और महान ||
गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |
गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||
कात्यायन की वर्तिका, में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, अति प्रभावी लेख ||
महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पतंजलि को देखिये, आग्रह-पूर्व निकाल ||
शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
देता खुब आशीष हूँ, मै उनका आचार्य ||
भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||
अब राजा अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||
शाळा की चिंता लिए, दुरानुभूती साध |
सृंगी से करने लगी, चर्चा परम अगाध ||
विस्तृत चर्चा हो गई, एक पाख ही हाथ |
छूटेगा सचमुच सकल, कन्याओं का साथ ||
करे व्यवस्था रोज ही, सुदृढ़ अति मजबूत |
सृन्गेश्वर की शिक्षिका, पाती शक्ति अकूत ||
आचार्या प्रधान बन, लेत व्यवस्था हाथ |
सौजा कौला साथ में, रूपा का भी साथ ||
ब्रह्मावादिन आत्रेयी, करती अग्निहोत्र |
बालाओं की बन रही, संस्कार की स्रोत्र ||
साध्यवधू शांता करे, सृगेश्वर का ध्यान |
सखियों के सहयोग से, कार्य हुए आसान ||
बढ़िया प्रसंग ...
ReplyDeleteसचमुच सुन्दर लिख रहे हैं आप आदरणीय रविकर जी...
ReplyDeleteसादर आभार...
वाह दिनेश जी ... आपका जवाब नहीं ...
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