कातर स्वरों में सब रोने लगे हैं
सूखे हलक खुद के, भिगोने लगे हैं ||
जागे हैं दुर्गम, अजेय शत्रु सब
सदाचार शर्मशार सोने लगे हैं ||
'सनक' सदाफल से सुमनों को तोड़
सत्यानाशी ठौर-ठौर बोने लगे हैं ||
लहरों का मिज़ाज बिगड़ जो गया
सुनामी शहर-ग्राम, झट धोने लगे हैं ||
अपने हिम्मत की दाद देते 'रविकर'
जिन्दा लाशें स्वयं की ढोने लगे हैं ||
बहुत तकलीफें होती हैं जब ऐसे दृश्य दिखते हैं !
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक वर्णन ...
ReplyDeleteदर्दनाक था सब.
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!!
ReplyDeleteअन्तरस्पर्शी प्रस्तुति....
ReplyDeleteसादर
बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteओह..! ..
ReplyDeleteAaj kal aisa hee to ho raha hai.
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