"....भटकते छोरी-छोरा" @ आज की मेहनत ही कल भी दुकान खोले रखने को हिम्मत देगी. आज दोनों भाई-बहन मिलकर अपने लूटने के बिजनिस के लिये जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं. ... मुझे तो आपकी कविताई में सामयिक कटाक्ष के दर्शन हुए.
कविश्रेष्ठ रविकर जी, आपने अनुप्रास की गजब की छटा बिखेरी है. मंत्रमुग्ध हो गया हूँ पढ़कर... आपके चरणों में बैठने का इच्छुक हो रहा हूँ... देखता हूँ कब मुझे इसका सौभाग्य मिलता है.
वाह ...बहुत बढि़या
ReplyDelete"....भटकते छोरी-छोरा"
ReplyDelete@ आज की मेहनत ही कल भी दुकान खोले रखने को हिम्मत देगी.
आज दोनों भाई-बहन मिलकर अपने लूटने के बिजनिस के लिये जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं.
... मुझे तो आपकी कविताई में सामयिक कटाक्ष के दर्शन हुए.
वाह ...बहुत खूब।
ReplyDeleteवाह ..वाह ..बहुत खूब।
ReplyDeleteसादर.
:-)
ReplyDeleteबढ़िया है...
बहुत सुंदर व्यंग ....
ReplyDeleteकुछ स्पेशल है इस काव्य में।
ReplyDeleteजोरदार रचना...
ReplyDeleteनीरज
कविश्रेष्ठ रविकर जी,
ReplyDeleteआपने अनुप्रास की गजब की छटा बिखेरी है. मंत्रमुग्ध हो गया हूँ पढ़कर...
आपके चरणों में बैठने का इच्छुक हो रहा हूँ... देखता हूँ कब मुझे इसका सौभाग्य मिलता है.
इस सार्थक पोस्ट के लिए बधाई स्वीकार करें
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
रविकर जी आपने तो हमें ही छका दिया ।
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