जलें लकड़ियाँ लोहड़ी, होली बारम्बार ।
जले रसोईं में कहीं, कहीं घटे व्यभिचार ।
कहीं घटे व्यभिचार, शीत-भर जले अलावा ।
भोगे अत्याचार, जिन्दगी विकट छलावा ।
रविकर अंकुर नवल, कबाड़े पौध कबड़िया ।
आखिर जलना अटल, बचा क्यूँ रखे लकड़ियाँ ।।
लकड़ी काटे चीर दे, लक्कड़-हारा रोज ।
ReplyDeleteकहीं घटे व्यभिचार, शीत-भर जले अलावा ।
भोगे अत्याचार, जिन्दगी विकट छलावा ।
बच निकले जो कोख से हो जावे भुलावा .
भाव -पूर्ण विचलित करती प्रस्तुति गहरी संवेदना से संसिक्त .
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/f/f9/Sati_ceremony.jpg
.कृपया यहाँ भी पधारें -
बुधवार, 9 मई 2012
शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर
जीवन में बड़ा मकसद रखना दिमाग में होने वाले कुछ ऐसे नुकसान दायक बदलावों को मुल्तवी रख सकता है जिनका अल्जाइमर्स से सम्बन्ध है .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
बुधवार, 9 मई 2012
http://veerubhai1947.blogspot.in/
बुधवार, 9 मई 2012
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जलें लकड़ियाँ लोहड़ी, होली बारम्बार।
जले रसोईं में कहीं, कहीं घटे व्यभिचार ।
आदरणीय रविकर फैजाबादी जी
सादर प्रणाम !
लकड़ी के माध्यम से आपने महान संदेश दे दिया है …
जीवन का सत्य बता दिया है …
श्रेष्ठ सृजन के लिए आभार !
हार्दिक शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
आपकी हां में हां मिलाने की गुंजाईश ही रह जाती है।
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