सर्ग-4
भाग-5
वार्षिक-उत्सव
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
भाग-5
वार्षिक-उत्सव
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीय संज्ञान से, रही शांता देख ||
धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
पर-निर्भरता नारि की, करे सदा ही घात ||
चाहे तारे तोड़ना, नहीं दीखती राह ।
रख दे चौकी पद तले, दे हौसला सलाह ।।
धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
पर-निर्भरता नारि की, करे सदा ही घात ||
नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||
मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||
व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||
सावन में पूरे हुए, पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||
कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||
ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||
करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव |
दिन बीते कुल तीन सौ, पाई नया पड़ाव ||
आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||
मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना, राखी का त्योहार ||
स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||
दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे गए विसार ||
पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||
आंसू आंशुक-जल सरिस, हरे व्यथा तन व्याधि ।
समय समय पर निकलते, आधा करते *आधि । |
वक्त वक्त की बात है, बढ़िया था वह दौर |
समय बदलता जा रहा, कुछ बदलेगा और |
कुछ बदलेगा और, आग से राख हुई जो |
पानी धूप बयार, प्यार से तनिक छुई जो |
मिट जायेगा दर्द, सर्द सी सिसकारी में |
ढक जाएगा गर्द, और फिर लाचारी में |
शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||
अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||
दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे गए विसार ||
पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||
आंसू आंशुक-जल सरिस, हरे व्यथा तन व्याधि ।
समय समय पर निकलते, आधा करते *आधि । |
वक्त वक्त की बात है, बढ़िया था वह दौर |
समय बदलता जा रहा, कुछ बदलेगा और |
कुछ बदलेगा और, आग से राख हुई जो |
पानी धूप बयार, प्यार से तनिक छुई जो |
मिट जायेगा दर्द, सर्द सी सिसकारी में |
ढक जाएगा गर्द, और फिर लाचारी में |
शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||
अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||
बारह बाला घर गईं, थी जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के उपहार ||
नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||
दस की बाला को सिखा, निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||
वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||
बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||
दस की बाला को सिखा, निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||
वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||
बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||
सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||
इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||
जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||
बर्बादी खाद्यान की, लो इकदम से रोक |
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||
गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उदबोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||
दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||
सदा हजारों गुना है, इक माता का ज्ञान |
शिक्षा शाश्वत सर्वथा, सर्वोत्तम वरदान ||
गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |
गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||
कात्यायन की वर्तिका, में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, श्रेष्ठ प्रभावी लेख ||
महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पतंजलि को देखिये, आग्रह-पूर्व निकाल ||
शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
देता खुब आशीष हूँ, मै उनका आचार्य ||
भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||
अब राजा अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||
शाळा की चिंता लिए, दूरानिभूति साध |
सृंगी से करने लगी, चर्चा परम अगाध ||
त्याग प्रेम बलिदान की, नारी सच प्रतिमूर्ति ।
दफनाती सारे सपन, सरल समस्या-पूर्ति ।
सरल समस्या-पूर्ति , पाल पति-पुत्र-पुत्रियाँ ।
आश्रित कुल परिवार, चलाती कुशल स्त्रियाँ ।
दफनाती सारे सपन, सरल समस्या-पूर्ति ।
सरल समस्या-पूर्ति , पाल पति-पुत्र-पुत्रियाँ ।
आश्रित कुल परिवार, चलाती कुशल स्त्रियाँ ।
निभा रही दायित्व, किन्तु अधिकार घटे हैं ।
हरते जो अधिकार, पुरुष वे बड़े लटे हैं ।।
हरते जो अधिकार, पुरुष वे बड़े लटे हैं ।।
विस्तृत चर्चा हो गई, एक पाख ही हाथ |
छूटेगा सचमुच सकल, कन्याओं का साथ ||
करे व्यवस्था रोज ही, सुदृढ़ अति मजबूत |
सृन्गेश्वर की शिक्षिका, पाती शक्ति अकूत ||
आचार्या प्रधान बन, लेत व्यवस्था हाथ |
सौजा कौला साथ में, रूपा का भी साथ ||
आत्रेयी ब्रह्म-वादिनी, करे अग्नि शुभ होत्र |
बालाओं की बन रही, संस्कार की स्रोत्र ||
साध्यवधू शांता करे, सृन्गेश्वर का ध्यान |
सखियों के सहयोग से, कार्य हुए आसान ||
आशंका चिंता-भँवर, असमंजस में लोग ।
चिंतामणि की चाह में, गवाँ रहे संजोग ।
गवाँ रहे संजोग, ढोंग छोडो ये सारे ।
मठ महंत दरवेश, खोजते मारे मारे ।
एक चिरंतन सत्य, फूंक चिंता की लंका ।
हँसों निरन्तर मस्त, रखो न मन आशंका ।।
वहिन शांता जी
ReplyDeleteबड़े ही सुन्दर शब्दों मे आपने स्त्री की महत्ता को समझाया है।बड़ी ही सुन्दर व मनोहारी भैट है यह आपकी सम्पूर्ण समाज को।
बहुत ही सुंदर। जी चाहता है,पढ़ते ही जाएं।
ReplyDeleteसुंदर कथा स्त्री शिक्षा का महत्व कब से था हमारे देश में हम कैसे भूल गये थे उसे ।
ReplyDeleteशांता जी की कथा सरस रविकर कवि सुनाये
श्रोता वाचक जान कर हर्षित हो मन माहि ।
अदभुत !
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ReplyDeleteभाग-5
वार्षिक-उत्सव
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीय संज्ञान से, रही शांता देख ||
अभिनव शब्द चयन -समबुद्धि ,संबोध से साक्षरता तक आधुनिक सन्दर्भों से जुडती हुई रचना .
सर्ग-4
ReplyDeleteभाग-5
वार्षिक-उत्सव
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीय संज्ञान से, रही शांता देख ||
अभिनव शब्द चयन -समबुद्धि ,संबोध से साक्षरता तक आधुनिक सन्दर्भों से जुडती हुई रचना .
शान्ता जैसे पुरातन चरित्र को आज से जोड़ने का कौशल ,सराहनीय है !
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