सर्ग-4
भाग-6
शांता-सृंगी विवाह
इन्तजार इस व्याह का, करते राजा-रंक |
अति लम्बे दुर्भिक्ष का, झेला दारुण-डंक ||
इन्तजार की इन्तिहा, इम्तिहान इतराय ।
गरह कटे अब तो सही, विरह सही नहिं जाय ।।
गरह कटे अब तो सही, विरह सही नहिं जाय ।।
वरुण देव करते रहे, मिटटी महा पलीद |
रिस्य रिसर्चर सृंग से, जागी अब उम्मीद ||
शांता के सद्कर्म से, होवे जग कल्याण |
तड़प-तड़प जीते रहे, बच जायें जो प्राण ||
रीति-कर्म होने लगे, संस्कार व्यवहार |
पाणिग्रहण के निमित्त अब, जुटती भीड़ अपार ||
भंडारे में आ रहे, दूर दूर से लोग |
पांच दिनों से खा रहे, सारे नियमित भोग ||
सृन्गेश्वर में सज गई, शंकर सी बारात |
परम बटुक लेकर चला, वर्षा की सौगात ||
दूल्हे संग इक पोटली, रही बगल में साज |
तरह तरह के साज से, गुंजित मधु-आवाज ||
दस बारह दिन से यहाँ, गरजें बादल खूब |
बेमतलब के नाट्य से, रही शांता ऊब ||
गरज हमारी देख के, गरज-गरज घन खूब ।
बिन बरसे वापस हुवे, धमा-चौकड़ी ऊब ।
धमा-चौकड़ी ऊब, खेत-खलिहान तपे हैं ।
तपते सड़क मकान, जीव भगवान् जपे है ।
त्राहिमाम भगवान्, पसीना छूटे भारी ।
भीगे ना अरमान, भीगती देह हमारी ।।
जैसे चंपा नगर में, करता वर परवेश |
भूरे बादल छा गए, ज्यों ताकें आदेश ||
सादर अगवानी करे, राजा राजकुमार |
विविन्डक ऋषि का सभी, प्रकट करें आभार ||
होय मंगलाचार इत, उत पानी बुंदियाय |
दादुर टर-टर बोलते, जीव-जंतु हर्षाय ||
रचना ईश्वर ने रची, तन मन मति अति-भिन्न |
प्राकृत के विपरीत गर, करे खिन्न खुद खिन्न |
प्राकृत के विपरीत गर, करे खिन्न खुद खिन्न |
इधर बराती चापते, छक के छप्पन भोग |
परम बटुक ढूंढे उधर, अच्छा एक सुयोग ||
साधारण से वेश में, पीयर धोती पाय |
धीरे धीरे शांता, बैठी मंडप आय ||
दृष्टि-भेद से उपजते, अपने अपने राम |
सत्य एक शाश्वत सही, वो ही है सुखधाम ।।
सत्य एक शाश्वत सही, वो ही है सुखधाम ।।
जमे पुरोहित उभय पक्ष, सुन्दर लग्न विचार |
गठबंधन करके भये, फेरे को तैयार ||
पहले फेरे के वचन, पालन-पोषण खाद्य |
संगच्छध्वम बोलते, बाजे मंगल वाद्य ||
स्वस्थ और सामृद्ध हो, त्रि-आयामी स्वास्थ |
भौतिक तन अध्यात्म मन, मिले मानसिक आथ ||
धन-दौलत या शक्ति हो, ख़ुशी मिले या दर्द |
भोगे मिलकर संग में, दोनों औरत-मर्द ||
इक दूजे का नित करें, आदर प्रति-सम्मान |
परिवारों के प्रति रहे, इज्जत एक समान ||
सुन्दर योग्य बलिष्ठ हो, अपने सब संतान |
कहें पाँचवा वचन सुन, बुद्धिमान इंसान ||
शान्ति-दीर्घ जीवन मिले, भूलें नहिं परमार्थ |
सिद्ध सदा करते रहें, इक दूजे के स्वार्थ ||
रहे भरोसा परस्पर, समझदार-साहचर्य |
प्रेमपुजारी बन रहें, बने रहें आदर्य ||
सातों वचनों को करें, दोनों अंगीकार |
बारिश की लगती झड़ी, होय मूसलाधार ||
वर्षा होती एक सी, उर्वर लेती सोख |
ऊसर सर सर दे बहा, रहती बंजर कोख |
रहती बंजर कोख, कर्म कुछ अच्छे कर ले |
बड़ा हृदय-विस्तार, गढ़न गढ़ करके भर ले |
कोमल-आर्द्र स्वभाव, उगें नव अंकुर हर्षा |
पर ऊसर पर व्यर्थ, असर नहिं डाले वर्षा ||
ऊसर सर सर दे बहा, रहती बंजर कोख |
रहती बंजर कोख, कर्म कुछ अच्छे कर ले |
बड़ा हृदय-विस्तार, गढ़न गढ़ करके भर ले |
कोमल-आर्द्र स्वभाव, उगें नव अंकुर हर्षा |
पर ऊसर पर व्यर्थ, असर नहिं डाले वर्षा ||
तीन दिनों तक अनवरत, भारी वर्षा होय |
घुप्प अँधेरा छा रहा, धरती दिया भिगोय ||
किच-किच होता महल में, लगे ऊबने लोग |
भोजन की किल्लत हुई, खले लाग संयोग ||
सूर्य-देवता ने दिया, दर्शन चौथे रोज |
मस्ती में सब झूमते, नव- आशा नव-ओज ||
वैवाहिक सन्दर्भ में, शुरू हुई फिर बात |
विधियाँ सब पूरी हुईं, विदा होय बारात ||
शांता ने सादर कहा, सुनिए प्रिय युवराज |
कन्याशाळा के भवन, का कैसा है काज ||
मुझे देखनी है प्रगति, ले चलिए अस्थान |
सृंगी-रूपा भी चले, आत्रेयी मेहमान ||
आधा से ज्यादा बना, दो एकड़ फैलाव |
सृंगी बोले बटुक से, वह थैली ले आव ||
गीली थैली जब तलक, बटुक वहां पर लाय |
चार क्यारियाँ स्वयं ही, सृंगी रहे बनाय ||
शांता ने रुद्राक्ष के, बदले भेजा धान |
औषधियेय प्रभाव से, डाली इसमें जान ||
मन्त्रों से ये सिद्ध हैं, उच्च-कोटि के धान |
अन्नपूर्णा की कृपा, सदा सर्वदा मान ||
चार क्यारियों में इन्हें, रोपें स्त्री चार ||
बारह-मासी ये उगें, जस जिसका व्यवहार ||
कन्याओं को नित मिले, मन-भर बढ़िया भात ||
द्रोही गर इनको छुवे, होय तुरत आघात ||
आत्रेयी रूपा सहित, शांता रमणी जाय |
अपनी अपनी क्यारियाँ, सुन्दर देत सजाय ||
बोलें भैया सोम्पद, इक-हजार अनुदान |
नियमित मिलिहै कोष से, रुके नहीं अभियान ||
दीदी मैंने शर्त ये, पूरी कर दी आज |
दूजी अपनी शर्त का, खोलो अबतो राज |
जुटे बहुत से लोग हैं, रहे राज अब राज |
कभी बाद में मैं कहूँ, क्या तुमको एतराज ||
दीदी मैं तो आपका, अपना छोटा भाय |
हर इच्छा पूरी करूँ, गंगे सदा सहाय ||
सृंगी के आशीष से, बहुरे मंगल-मोद |
हरी भरी होने लगी, अंगदेश की गोद ||
रूपा के सानिध्य में, चंचल राजकुमार |
आँख बचा कर सभी की, करता आँखें चार ||
नयन से चाह भर, वाण मार मार कर
ह्रदय के आर पार, झूरे चला जात है |
नेह का बुलाय लेत, देह झकझोर देत
झंझट हो सेत-मेत, भाग भला जात है |
बेहद तकरार हो, खुदी खुद ही जाय खो
पग-पग पे कांटे बो, प्रेम गीत गात है |
मार-पीट करे खूब, प्रिय का धरत रूप
नयनों से करे चुप, ऐसे आजमात है ||
शांता से छुपता नहीं, लेकिन यह व्यवहार |
रमणी को वह सौंपती, रूपा का सब भार ||
मिलन आस का वास हो, अंतर्मन में ख़ास
सुध-बुध बिसरे तन-बदन, गुमते होश-हवाश ।
सुध-बुध बिसरे तन-बदन, गुमते होश-हवाश ।
गुमते होश-हवाश, पुलकती सारी देंही ।
तीर भरे उच्छ्वास, ताकता परम सनेही ।
वर्षा हो न जाय, भिगो दे पाथ रास का ।
अब न मुझको रोक, चली ले मिलन आस का ।।
मुश्किल में, दिल में मिले, बढ़े आत्म-विश्वास |
कंटक-पथ पर बढ़ चले, साथ मिले जो ख़ास |
साथ मिले जो ख़ास, रास हरदम आता है |
मात्र साथ एहसास, हमें रविकर भाता है |
जीवन इक संघर्ष, हमेशा विजय कामना |
बढ़ता मित्र सहर्ष, हाथ तू "सदा" थामना ||
बीस वर्ष का हो गया, लम्बा यहाँ प्रवास |
कंटक-पथ पर बढ़ चले, साथ मिले जो ख़ास |
साथ मिले जो ख़ास, रास हरदम आता है |
मात्र साथ एहसास, हमें रविकर भाता है |
जीवन इक संघर्ष, हमेशा विजय कामना |
बढ़ता मित्र सहर्ष, हाथ तू "सदा" थामना ||
बीस वर्ष का हो गया, लम्बा यहाँ प्रवास |
शांता आगे बढ़ चली, फिर से नए निवास ||
है कैसी यह बिडम्बना, नारी जैसे धान |
बार-बार बोई गई, बदल-बदल स्थान ||
धान कूट के फिर मिले, चावल निर्मल-श्वेत |
खेत खेत की यात्रा, हो जाती फिर खेत
खेत खेत की यात्रा, हो जाती फिर खेत
है कैसी यह बिडम्बना, नारी जैसे धान |
ReplyDeleteबार-बार बोई गई, बदल-बदल स्थान ||
धान कूट के फिर मिले, चावल निर्मल-श्वेत |
खेत खेत की यात्रा, हो जाती फिर खेत
नारी जीवन का एक कडवा सच पर आवश्यक भी । कथा का प्रवाह बढिया है ।
सृन्गेश्वर में सज गई, शंकर सी बारात |
ReplyDeleteपरम बटुक लेकर चला, वर्षा की सौगात ||
दोहों की गति और कथा का आवेग परस्पर एक अन्विति लिए हैं .