27 October, 2012

किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा-


साभार वीरुभाई 
(1)
ऊँचा-ऊँचा बोल के, ऊँचा माने छूँछ |
भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |
ऊँची करके पूँछ, मूँछ पर हाथ फिराए |
करनी रहती तुच्छ, ऊँच पर्वत कहलाये |
किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा | |
दिखता गहरा शांत, किन्तु पर्वत से ऊँचा ||

(2)
पर्वत की गर्वोक्ति पर, धरा धरे ना धीर |
चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |
सागर समझे पीर, बड़ा गंभीर नियामक |
पाले अरब शरीर, संभाले सबबिधि लायक | 

बड़वानल ले थाम, सुनामी की यह हरकत |
करे तुच्छ एहसास, दहल जाता वो पर्वत |।

(3)
तथाकथित उस ऊँच को, देता थोडा क्लेश |
शान्त समन्दर भेजता, मानसून सन्देश | 

मानसून सन्देश, कष्ट में गंगा पावन |

जीव-जंतु हलकान, काट तू इनके बंधन |

ब्रह्मपुत्र सर सिन्धु, ऊबता मन क्यूँ सबका  ?
अपना त्याग घमंड, दुहाई रविकर रब का ||  


(4)

तप्त अन्तर है भयंकर |
बहुत ही विक्षोभ अन्दर |
जीव अरबों है विचरते-
शाँत पर दिखता समंदर ||

पारसी छत पर खिलाते |
सुह्र्दजन की लाश रखकर |
पर समंदर जीव मृत से -
ऊर्जा दे तरल कर कर || 

(5)


बढ़ी समस्या खाद्य की, लूट-पाट गंभीर |
मत्स्य एल्गी के लिए, चलो समंदर तीर |

चलो समंदर तीर, भरे भण्डार अनोखा |
बुझा जठर की आग, कभी देगा ना धोखा |

सागर अक्षय पात्र, करेगा विश्व तपस्या |
सचमुच हृदय विशाल, मिटाए बढ़ी समस्या || 


(6)


लम्बी-चौड़ी हाँकते, बौने बौने लोग |
शोषण करते धरा का, औने-पौने भोग |
औने-पौने भोग, रोग है इनको लागा |
रखता एटम बम्ब, दुष्टता करे अभागा |
रविकर कर चुपचाप, जलधि के इन्हें हवाले |
ये आफत परकाल, रखे गहराई  वाले ||


(7)

धरती भरती जा रही, बड़ी विकट उच्छ्वास |
बरती मरती जा रही, ले ना पावे साँस |
ले ना पावे साँस, तुला नित घाट तौलती |
फुकुसिमी जापान, त्रासदी रही खौलती |
चेतो लो संकल्प, व्यर्थ जो आपा खोते।
मिलेंगे क्यूँकर आम, अगर बबुरी बन बोते ।।

 

7 comments:

  1. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 29-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1047 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

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  2. गहन व्याख्या मूर्त, कवियत्री महिमा बाँचे -


    तर्क की मीनार
    Virendra Kumar Sharma
    ram ram bhai
    पत्नी भोजन दे पका, स्वाद लिया भरपूर |
    बेटा रूपये भेजता, बसा हुआ जो दूर |
    बसा हुआ जो दूर, हमारी तो आदत है |
    नहीं कहें आभार, पुरानी सी हरकत है |
    गरज तुम्हारी आय, ठोकते रहिये टिप्पण |
    क्या बिगड़ेगा मोर, ढीठ रविकर है कृ-पण ||

    बहुत सुन्दर रविकर जी मर्म पकड़ा है आपने मूल आलेख का .

    पति-पत्नी तो व्यस्त, बाल मन बनता लावा-
    नैतिक शिक्षा पुस्तकें, सदाचार आधार |
    महत्त्वपूर्ण इनसे अधिक, मात-पिता व्यवहार |
    मात-पिता व्यवहार, पुत्र को मिले बढ़ावा |
    पति-पत्नी तो व्यस्त, बाल मन बनता लावा |
    खेल वीडिओ गेम, जीत की हरदम इच्छा |
    मारो काटो घेर, करे क्या नैतिक शिक्षा ||


    महत्वपूर्ण ,मौजू मुद्दा उठाया है .

    डिजिटलीकरण हो रहा है बच्चों का .


    किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा-

    साभार वीरुभाई
    (1)
    ऊँचा-ऊँचा बोल के, ऊँचा माने छूँछ |
    भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |
    ऊँची करके पूँछ, मूँछ पर हाथ फिराए |
    करनी रहती तुच्छ, ऊँच पर्वत कहलाये |
    किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा | |
    दिखता गहरा शांत, किन्तु पर्वत से ऊँचा ||

    (2)
    पर्वत की गर्वोक्ति पर, धरा धरे ना धीर |
    चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |
    सागर समझे पीर, बड़ा गंभीर नियामक |
    पाले अरब शरीर, संभाले सबबिधि लायक |
    बड़वानल ले थाम, सुनामी की यह हरकत |
    करे तुच्छ एहसास, दहल जाता वो पर्वत |।

    रविकर जी बहुत अच्छी पूर्ती .व्यक्ति को विनम्र ही होना चाहिए .फल से लदा वृक्ष ही झुकता है .

    कहा भी गया है क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात ....

    जो बड़ेन को लघु कहे ,नहीं रहीम घट जाए ,

    गिरधर मुरली धर कहे ,कछु दुःख मानत नाहिं ....

    बधाई इस भाव-पूर्ण प्रस्तुति के लिए .

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  3. किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा-

    साभार वीरुभाई
    (1)
    ऊँचा-ऊँचा बोल के, ऊँचा माने छूँछ |
    भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |
    ऊँची करके पूँछ, मूँछ पर हाथ फिराए |
    करनी रहती तुच्छ, ऊँच पर्वत कहलाये |
    किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा | |
    दिखता गहरा शांत, किन्तु पर्वत से ऊँचा ||

    (2)
    पर्वत की गर्वोक्ति पर, धरा धरे ना धीर |
    चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |
    सागर समझे पीर, बड़ा गंभीर नियामक |
    पाले अरब शरीर, संभाले सबबिधि लायक |
    बड़वानल ले थाम, सुनामी की यह हरकत |
    करे तुच्छ एहसास, दहल जाता वो पर्वत |।

    रविकर जी बहुत अच्छी पूर्ती .व्यक्ति को विनम्र ही होना चाहिए .फल से लदा वृक्ष ही झुकता है .

    कहा भी गया है क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात ....

    जो बड़ेन को लघु कहे ,नहीं रहीम घट जाए ,

    गिरधर मुरली धर कहे ,कछु दुःख मानत नाहिं ....

    बधाई इस भाव-पूर्ण प्रस्तुति के लिए .

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  4. गहन व्याख्या मूर्त, कवियत्री महिमा बाँचे -


    तर्क की मीनार
    Virendra Kumar Sharma
    ram ram bhai
    पत्नी भोजन दे पका, स्वाद लिया भरपूर |
    बेटा रूपये भेजता, बसा हुआ जो दूर |
    बसा हुआ जो दूर, हमारी तो आदत है |
    नहीं कहें आभार, पुरानी सी हरकत है |
    गरज तुम्हारी आय, ठोकते रहिये टिप्पण |
    क्या बिगड़ेगा मोर, ढीठ रविकर है कृ-पण ||

    बहुत सुन्दर रविकर जी मर्म पकड़ा है आपने मूल आलेख का .

    पति-पत्नी तो व्यस्त, बाल मन बनता लावा-
    नैतिक शिक्षा पुस्तकें, सदाचार आधार |
    महत्त्वपूर्ण इनसे अधिक, मात-पिता व्यवहार |
    मात-पिता व्यवहार, पुत्र को मिले बढ़ावा |
    पति-पत्नी तो व्यस्त, बाल मन बनता लावा |
    खेल वीडिओ गेम, जीत की हरदम इच्छा |
    मारो काटो घेर, करे क्या नैतिक शिक्षा ||


    महत्वपूर्ण ,मौजू मुद्दा उठाया है .

    डिजिटलीकरण हो रहा है बच्चों का .


    किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा-

    साभार वीरुभाई
    (1)
    ऊँचा-ऊँचा बोल के, ऊँचा माने छूँछ |
    भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |
    ऊँची करके पूँछ, मूँछ पर हाथ फिराए |
    करनी रहती तुच्छ, ऊँच पर्वत कहलाये |
    किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा | |
    दिखता गहरा शांत, किन्तु पर्वत से ऊँचा ||

    (2)
    पर्वत की गर्वोक्ति पर, धरा धरे ना धीर |
    चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |
    सागर समझे पीर, बड़ा गंभीर नियामक |
    पाले अरब शरीर, संभाले सबबिधि लायक |
    बड़वानल ले थाम, सुनामी की यह हरकत |
    करे तुच्छ एहसास, दहल जाता वो पर्वत |।

    रविकर जी बहुत अच्छी पूर्ती .व्यक्ति को विनम्र ही होना चाहिए .फल से लदा वृक्ष ही झुकता है .

    कहा भी गया है क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात ....

    जो बड़ेन को लघु कहे ,नहीं रहीम घट जाए ,

    गिरधर मुरली धर कहे ,कछु दुःख मानत नाहिं ....

    बधाई इस भाव-पूर्ण प्रस्तुति के लिए .

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  5. किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा-

    साभार वीरुभाई
    (1)
    ऊँचा-ऊँचा बोल के, ऊँचा माने छूँछ |
    भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |
    ऊँची करके पूँछ, मूँछ पर हाथ फिराए |
    करनी रहती तुच्छ, ऊँच पर्वत कहलाये |
    किन्तु सके सौ लील, समन्दर अचल समूचा | |
    दिखता गहरा शांत, किन्तु पर्वत से ऊँचा ||

    (2)
    पर्वत की गर्वोक्ति पर, धरा धरे ना धीर |
    चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |
    सागर समझे पीर, बड़ा गंभीर नियामक |
    पाले अरब शरीर, संभाले सबबिधि लायक |
    बड़वानल ले थाम, सुनामी की यह हरकत |
    करे तुच्छ एहसास, दहल जाता वो पर्वत |।

    रविकर जी बहुत अच्छी पूर्ती .व्यक्ति को विनम्र ही होना चाहिए .फल से लदा वृक्ष ही झुकता है .

    कहा भी गया है क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पात ....

    जो बड़ेन को लघु कहे ,नहीं रहीम घट जाए ,

    गिरधर मुरली धर कहे ,कछु दुःख मानत नाहिं ....

    बधाई इस भाव-पूर्ण प्रस्तुति के लिए .

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  6. हर एक शब्द प्रेरना देता हुआ। सुन्दर प्रस्तुति के लिये धन्यवाद शुभ्कम.

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  7. वाह पर्वत और समंदर की तुलनात्मक प्रस्तुति बडी रोचक लगी । पर पर्वत् के बिना मानसूनी बारिश कहां । सब की अपनी अपनी उपयोगिता है ।

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