दर्जी दिग्गी चीर के, सिले सिलसिलेवार |
कह फर्जी मुठभेड़ को, पोटे किसे लबार |
कह फर्जी मुठभेड़ को, पोटे किसे लबार |
पोटे किसे लबार, शुद्ध दिखती खुदगर्जी |
जाय भाड़ में देश, करे अपनी मनमर्जी |
ले आतंकी पक्ष, अगर लादेन का कर्जी |
पर भड़का उन्माद, चीथड़े क्यूँकर दर्जी ||
सुंदर !
ReplyDeleteBadhiya Sir ji !
ReplyDeleteये खुद ही लपाडपंथी के अलावा कुछ नही करता, जोकर कहीं का.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत खूब..
ReplyDeleteआपकी यह सुन्दर रचना आज दिनांक 26.07.2013 को http://blogprasaran.blogspot.in/ पर लिंक की गयी है। कृपया इसे देखें और अपने सुझाव दें।
ReplyDeleteबढ़िया, खूब
ReplyDeleteगहरी मार !
ReplyDeleteखूब कसके लगाये हैं रविकर जी, पर ये तो चिकने घडे हैं ।
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