प्रबंध काव्य का लिंक:- मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन : भगवती शांता
|
भाग-6
दोहे
असफल खर की चेष्टा, हो बेहद गमगीन |
लंका जाकर के खड़ा, मुखड़ा दुखी मलीन ||
रावण बरबस पूछता, क्यूँ हो बन्धु उदास |
कौशल्या के गर्भ का, करके सत्यानाश ||
खर पूछे आश्वस्त हो, भ्रात कहो समझाय |
यह घटना कैसे हुई, जियरा तनिक जुड़ाय ||
रानी रथ से कूदती, चोट खाय भरपूर |
तीन माह का भ्रूण भी, हो जाता खुद चूर ||
सज्जन खुशियाँ बांटते, दुर्जन कष्ट बढ़ाय ।
दुर्जन मरके खुश करे, सज्जन जाय रूलाय ।
खर के सँग फिर गुप्तचर, भेजा सागर पार |
वह सुग्गासुर जा जमा, शुक थे जहाँ अपार ||
हरकारे वापस इधर, आये दशरथ पास |
घटना सुनकर हो गया, सारा अवध उदास ||
विकट मार्मिक कष्टकर, सुना सकल दृष्टांत ।
असहनीय दुष्कर लगे, होता चित्त अशांत ।
गुरुकुल में शावक मरा, हिरनी आई याद |
अनजाने घायल हुई, चखा दर्द का स्वाद ||
आहों से कैसे भरे, मन के गहरे जख्म ।
मरहम-पट्टी समय के, जख्म करेंगे ख़त्म ।।
अनुमति पाय वशिष्ठ की, तुरत गए ससुरार |
कौशल्या को देखते, नैना छलके प्यार ||
सूरज ने संक्रान्ति से, दिए किरण उपहार |
कटु-ठिठुरन थमने लगी, चमक उठा संसार ||
दवा-दुआ से हो गई, रानी जल्दी ठीक |
दशरथ के सत्संग से, घटना भूल अनीक ||
कुंडलियां
आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।
बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।
अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।
अपनों के उपहार, खोलकर अगर निहारे ।
पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।
नई ऊर्जा पाय, करे फिर आपाधापी ।।
विदा मांग कर आ गए, राजा-रानी साथ |
खुश होती चिंतित प्रजा, होकर पुन: सनाथ ||
धीरे धीरे सरकती, छोटी होती रात |
हवा बसंती बह रही, जल्दी होय प्रभात |
दिग-दिगंत बौराया | मादक बसंत आया ||
तोते सदा पुकारे | मैना मन दुत्कारे ||
काली कोयल कूके | लोग होलिका फूंके ||
सरसों पीली फूली | शीत बची मामूली ||
भौरां मद्धिम गाये | तितली मन बहलाए ||
भाग्य हमारे जागे | गर्म वस्त्र सब त्यागे ||
पीली सरसों फूलती, हरे खेत के बीच |
कृषक निराई कर रहे, रहे खेत कुछ सींच ||
पौधे भी संवाद में, रत रहते दिन रात |
गेहूं जौ मिलते गले, खटखटात जड़-जात |।
तरह तरह की जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
जीव प्रफुल्लित विचरते, नए सीखते ढंग ||
कौशल्या रहती मगन, वन-उपवन में घूम ||
धीरे धीरे भूलती, गम पुष्पों को चूम ||
कुंडलियां
(१)
खिलें बगीचे में सदा, भान्ति भान्ति के रंग ।
पुष्प-पत्र-फल मंजरी, तितली भ्रमर पतंग ।
तितली भ्रमर पतंग, बागवाँ सारे न्यारे ।
दुनिया होती दंग, आय के दशरथ द्वारे ।
नित्य पौध नव रोप, हाथ से हरदिन सींचे ।
कठिन परिश्रम होय, तभी तो खिलें बगीचे ।।
(२)
घोंघे करते मस्तियाँ, मीन चुकाती दाम ।
कमल-कुमुदनी से पटा, पानी पानी काम ।
पानी पानी काम, केलि कर काई कीचड़ ।
रहे नोचते *पाम, काइयाँ पापी लीचड़ ।
भौरों की बारात, पतंगे जलते मोघे ।।
श्रेष्ठ विदेही पात, नहीं बन जाते घोंघे ।
(*किनारी की छोर पर लगी गोटी)
कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||
रहे कुशल नारी सदा, छल ना पायें धूर्त ।
संरक्षित निर्भय रहे, संग पिता-पति पूत ।
तोते कौवे की बढ़ी, महल पास तादाद |
गिद्धराज की तब उन्हें, आई बरबस याद ।।
कौशल्या जब देखती, गिद्धराज सा गिद्ध |
याद जटायू को करे, किया प्यार जो सिद्ध ||
यह मोटा भद्दा दिखे, शुभात्मीय सदरूप |
यह घृणित चौकस लगे, उसपर स्नेह अनूप ||
गिद्ध-दृष्टि रखने लगा, बदला-बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे कुरूप ||
केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||
सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||
एक दिवस रानी गई, वन-रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर-सुभाष ||
माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में रखता द्रोह ||
मत्तगयन्द सवैया
बाहर की तनु सुन्दरता मनभावन रूप दिखे मतवाला ।
साज सिँगार करे सगरो छल रूप धरे उजला पट-काला ।
मीठ विनीत बनावट की पर दंभ भरी बतिया मन काला ।
दूध दिखे मुख रूप सजे पर घोर भरा घट अन्दर हाला ।।
रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||
स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||
सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
स्वर्ण-हार लेकर उड़ा, इक दिन वह आकाश ||
सुनकर चीख-पुकार को, वो ही भद्दा गिद्ध ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||
जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
आश्रय पाय सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||
रानी पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
नवमी को व्रत पूर्ण कर, कन्या रही खिलाय |
चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||
'रविकर' दिन का ताप अब, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी मन सकुचाय ||
अम्बिया की चटनी बने, प्याज पुदीना डाल ।
चटकारे ले न सके, चिंता से बेहाल ।।
अपने गम में लिप्त सब, न दूजे का ख्याल ।
पुतली से रखते सटा, अपने सब जंजाल ।।
हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह |
कुंडलियां
मन की मनमानी खले, रक्खो खीँच लगाम ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ हो जाय अनर्गल ।
ना जाने क्या कर्म, मर्म को लगे उछल-कर ।
सदा रखो यह ध्यान, शीर्ष का चुन लो प्राणी ।
अनुगामी बन स्वयं, रोक मन की मनमानी ।।
सर्ग-1 : समाप्त
मित्र !शुभ दीपावली !!आशा है कि आप सपरिवार सकुशल होंगे |
ReplyDeleteसुन्दर रचना !!
दीपोत्सव पर आपको सपरिवार अनंत मंगलकामनाएं।
ReplyDeleteअसफल खर की चेष्टा, हो बेहद गमगीन |
ReplyDeleteलंका जाकर के खड़ा, मुखड़ा दुखी मलीन ||
रावण बरबस पूछता, क्यूँ हो बन्धु उदास |
कौशल्या के गर्भ का, करके सत्यानाश ||
मार्मिक प्रसंग .मुबारक उत्सव त्रयी .