सर्ग-२
भाग-3
कन्या का नामकरण
कौशल्या दशरथ कहें, रुको और महराज |
अंगराज रानी सहित, ज्यों चलते रथ साज ||
राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान |
चलने की आज्ञा मिले, राजन हमें विहान ||
सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार |
अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार ||
दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव |
सरयू में तैयार है, बड़ी राजसी नाव ||
धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |
चार दिनों का सफ़र कुल, काहे होत अधीर ||
चंपानगरी दूर है, पूरे दो सौ कोस |
उत्तम यह प्रस्ताव है, दिखे नहीं कुछ दोष ||
पहुंचे उत्तम घाट पर, थी विशाल इक नाव |
नाविक-गण सब विधि कुशल, परिचित नदी बहाव ||
बैठे सब जन चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |
घोड़े-रथ तट पर चले, लेकर सैनिक चंद ||
धीरे धीरे गति बढ़ी, सीमा होती पार |
गंगा में सरयू मिली, संगम का आभार ||
चार घरी रूककर वहां, पूजें गंगा माय |
कर सरयू की वंदना, देते नाव बढ़ाय ||
परम हर्ष उल्लास का, देखा फिर अतिरेक |
ग्राम रास्ते में मिला, अंगदेश का एक ||
धरती पर उतरे सभी, आसन लिया जमाय |
नई कुमारी का करें, स्वागत जनगण आय |
किलकारे कन्या हँसे, कौला रखती ख्याल |
धरती पर धरती कदम, रानी रही संभाल ||
उत्तम औषधि वैद्य की, शुभ गुणकारी लेप |
रस्ते भर मलती चली, तीन बार अति घेप ||
नई वनस्पति फल नए, शीतल नई समीर |
खान-पान था कुल नया, नई नई तासीर ||
अंग देश की बालिका, मंद-मंद मुसकाय |
कंद-मूल फल प्रेम से, अंगदेश के खाय ||
रानी के संग खेलती, बाला भूल कलेश |
राज काज के काम कुछ, निबटा रहे नरेश ||
एक अनोखा वाद था, ग्राम प्रमुख के पास |
बात सौतिया डाह की, विधवा करती नाश ||
सौतेला इक पुत्र है, सौजा के दो आप |
इक खाया कल बाघ ने, करती घोर विलाप ||
कुंडलियां
फांके हफ़्तों से करे, अपनों से खा मात ।
जिन्दा रहने के लिए, करता वो आघात ।
करता वो आघात, क्षमा रविकर कर देते ।
पर उनका कस शौक, प्राण जो यूँ ही लेते ।
भरे पेट का मौज, तड़पती लाशें ताके ।
दुष्कर्मी बेखौफ, मौज से पाचक फांके ।।
रो रो कर वह बक रही, सौतेले का दोष |
यद्दपि वह घायल पड़ा, करे गाँव अफ़सोस ||
कुंडलियां
ढर्रा बदलेगी नहीं, रोज अड़ाये टांग ।
खांई में बच्चे सहित, सकती मार छलांग ।
सकती मार छलांग, भूलती मानुष माटी ।
मात्र सौतिया डाह, चलाये वो परिपाटी ।
रविकर का अंदाज, लगेगा झटका कर्रा ।
बर्रा प्राकृत दर्प, बदल नहिं पाए ढर्रा ।।
जान लड़ा कर खुब लड़ा, हुआ किन्तु बेहोश |
बचा लिया इक पुत्र को, फिर भी न संतोष ||
बड़ी दिलेरी से लड़ा, चौकीदार गवाह |
बाघ पुत्र को ले भगा, जंगल दुर्गम राह ||
सौजा को विश्वास है, देने को संताप |
सौतेले ने है किया, घृणित दुर्धुश पाप ||
घर न रखना चाहती, वह अब अपने साथ |
ईश्वर की खातिर अभी, न्याय कीजिए नाथ ||
दालिम को लाया गया, हट्टा-कट्टा वीर |
चेहरे पर थी पीलिमा, घायल बहुत शरीर ||
सौजा से भूपति कहें, दालिम का अपराध |
ग्राम निकाला दे दिया, रहे किन्तु हितसाध ||
दालिम से मुड़कर कहें, बैठो जाय जहाज |
छू ले माता के चरण, मत होना नाराज ||
कुंडलियां
यूँ ही जाते लड़खड़ा, कदम चले जो दूर ।
कहते क्यूँ यह हड़बड़ा, आखिर क्यूँ मजबूर ।
आखिर क्यूँ मजबूर, हकीकत तुम भी जानो ।
गम उसको भरपूर, बात मानो ना मानो ।
कैसे सहे विछोह, आत्मा यह निर्मोही ।
समझ हृदय की पीर, करो ना बातें यूँ ही ।।
राजा पक्के पारखी, है हीरा यह वीर |
पुत्री का रक्षक लगे, कौला की तकदीर ||
कुंडलियां
ममता में अंधी हुई, अपना पूत दिखाय |
स्वार्थ सिद्ध में लग गई, गाँव भाड़ में जाय |
गाँव भाड़ में जाय, खाय ले सौतन बच्चा |
एक सूत्र पा जाय , चबाती बच्चा कच्चा |
देती हृदय हिलाय, कोप तिल भर नहिं कमता |
मंद मंद मुसकाय, ठगिन माया से ममता ।।
सेनापति से यूँ कहें, रुको यहाँ कुछ रोज |
नरभक्षी से त्रस्त जन, करिए उसकी खोज ||
जीव-जंतु जंगल नदी, सागर खेत पहाड़ |
बंदनीय हैं ये सकल, इनको नहीं उजाड़ ||
रक्षा इनकी जो करे, उसकी रक्षा होय |
शोषण गर मानव करे, जाए जल्द बिलोय ||
केवल क्रीडा के लिए, मत करिए आखेट |
भरता शाकाहार भी, मांसाहारी पेट ||
जीव जंतु वे धन्य जो, परहित धरे शरीर |
हैं निकृष्ट वे जानवर, खाएं उनको चीर ||
नरभक्षी के लग चुका, मुँह में मानव खून |
जल्दी उसको मारिये, जनगण पाय सुकून ||
अगली संध्या में करें, चंपा नगर प्रवेश |
अंग-अंग प्रमुदित हुआ, झूमा अंग प्रदेश ||
गुरुजन का आशीष ले, मंत्री संग विचार |
नामकरण का शुभ दिवस, तय अगला बुधवार ||
नामकरण के दिन सजा, पूरा नगर विशेष |
देवलोक अवलोकता, ब्रह्मा विष्णु महेश ||
महा-पुरोहित कर रहे, थापित महा-गणेश |
राजकुमारी आ गई, आये अतिथि विशेष ||
रानी माँ की गोद में, चंचल रही विराज |
टुकुर टुकुर देखे सकल, होते मंगल काज ||
कौला दालिम साथ में, राजकुमारी पास |
हम दोनों कुछ ख़ास हैं, करते वे एहसास ||
महापुरोहित बोलते, हो जाओ सब शांत |
शान्ता सुन्दर नाम है, फैले सारे प्रांत ||
शान्ता -शान्ता कह उठा, वहाँ जमा समुदाय |
मात-पिता प्रमुदित हुए, कन्या खूब सुहाय ||
कार्यक्रम सम्पन्न हो, विदा हुए सब लोग |
पूँछे कौला को बुला, राजा पाय सुयोग ||
शान्ता की तुम धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |
दालिम लगता है भला, रखे तुम्हे खुशहाल ||
तुमको गर अच्छा लगे, दिल में तेरे चाह |
सात दिनों में ही करूँ, तेरा उससे व्याह ||
कौला शरमाई तनिक, गई वहाँ से भाग |
दालिम की किस्मत जगी, बढ़ा राग-अनुराग ||
दोनों की शादी हुई, चले एक ही राह |
शान्ता के प्रिय बन रहे, दे पनाह नरनाह ||
कुंडलियां
सौम्या सृष्टी सोहिनी, माँ की मंजिल राह ।
सचुतुर, सुखदा, सुघड़ई, दुर्गे मिली अथाह ।
दुर्गे मिली अथाह, बड़ी आभारी माता ।
ताकूँ अपना अक्श, कृपा कर सदा विधाता ।
हसरत हर अरमान, सफल देखूं इस दृष्टी ।
मंगल-मंगल प्यार, लुटाती सौम्या सृष्टी ।।
पोर-पोर में प्यार है, ममतामयी महान ।
कन्या में नित देखती, देवी का वरदान ।।
भक्तिरस से रचित आपकी रचना हृदय को अपनी ओर आकर्षित करती हैं , आदरणीय को प्रणाम , धन्यवाद।
ReplyDeleteजै श्री हरिः
ReplyDeleteधारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |
चार दिनों का सफ़र कुल, काहे होत अधीर ||
अति सुन्दर मनोहर रस धार कथा चल रही है .
bahut sundar rachna sr
ReplyDeletemy letest post ----Sowaty Pratibha कबीर/ग़ालिब(1-4)
ReplyDeleteकिलकारे कन्या हँसे, कौला रखती ख्याल |
धरती पर धरती कदम, रानी रही संभाल ||
क्या बात "क " की पुनरावृत्ति सौंदर्य लिए आई है .