19 November, 2013

शान्ता के चरण ; मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन

सर्ग-३ 
  भाग-1 

शांता चलती घुटुरवन, चहल पहल उत्साह |
दास-दासियाँ रख रहे, चौकस सदा निगाह ||

सबसे प्रिय लगती उसे, अपनी माँ की गोद |
माँ बोले जब तोतली, होवे परम-विनोद ||

कौला-दालिम जोहते, बैठे अपनी बाट |
कौला पैरों को मले, हलके-फुल्के डांट ||

दालिम टहलाये उसे, करवाए अभ्यास |
अपने पैरों पर चले, गुजरे बारह मास ||

हर्षित सारा महल था, भेजें अवध सँदेश |
शान्ता पग धरने लगी, अब तो बिना कलेश ||

दशरथ कौशल्या सहित, रथ को रहे उड़ाय |
पग धरते देखी सुता, जाय करेज जुड़ाय || 

एक घरी के लिए जब, जगे सुता का मोह । 
मातु-पिता का हृदय तब, कर बैठे विद्रोह । 

राजा-रानी का वचन, जाय अंतत: जीत । 
दिया गोद तो दे दिया, नहीं कुरेद अतीत । 

कौशल्या मौसी हुई, मौसा भूप कहाय |
सरयू-दर्शन का वहाँ, न्यौता देकर जाय ||

एक मास के बाद ही, शान्ता मैया संग |
गई अवधपुर घूमने, छाये अवध उमंग || 

कौला को दालिम मिला, होनहार बलवान |
दासी सब ईर्ष्या करें, तनिकौ नहीं सुहान ||

प्रेम और विश्वास का, होय नहीं व्यापार ।
दंड-भेद से ना मिले, साम दाम वेकार ।।

स्नेह-समर्पण कर दिया, क्यों कुछ मांगे दास ?
 इच्छाएं कर दे दफ़न, मत करवा परिहास ।।

मौसा-मौसी  के यहाँ, रही शान्ता मस्त |
दौड़ा-दौड़ा के करे, कौला को वह पस्त ||

अपने घर फिर आ गई, एक पाख के बाद |
राजा ने पाया तभी, महा-मस्त संवाद ||

प्रथम चरण की धमक के, लक्षण बड़े महान |
हैं रानी चम्पावती,  इक शरीर दो जान ||

हर्षित भूपति नाचते, बढ़ा और भी प्यार |
ठुमक-ठुमक कर शान्ता, होती पीठ सवार ||

पैरों में पायल पड़े, झुन झुन बाजे खूब |
आनंदित माता पिता, गये प्यार में डूब ||

शान्ता माता से हुई, किन्तु तनिक अब दूर |
पर कौला देती उसे, प्यार सदा भरपूर ||

राजा भी रखते रहे, बेटी का खुब ध्यान |
 अंगराज को मिल गई, एक और संतान ||

रानी पाई पुत्र को, शान्ता पाई भाय |
देख देख के भ्रात को, मन उसका हरसाय ||


नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |
सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||

नारी  बहना  बने जो, हो दूजी संतान
होवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||

नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय  अहसास |
बच्चा पोसे गर्भ में,  काया महक सुबास ||

 कौला भी माता बनी , दालिम बनता बाप |
पुत्री संग रहने लगे, मिटे सकल संताप ||

फिर से कौला माँ बनी, पाई सुन्दर पूत | 
भाई बहना की बनी, पावन जोड़ी नूत ||

शान्ता होती सात की, पांच बरस का सोम |
परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||

कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |
दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||

जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम | 
गुमसुम सी रहने जगी, प्राकृत हुई विलोम || 

माता से वह जिद करे, जाऊँगी उस ठौर | 
भाई के संग ही रहूँ, यहाँ रहूँ ना और || 

माता समझाने लगी, कौला रही बताय | 
यहीं महल में पाठ का, करती आज उपाय || 

गुरुकुल से आये वहाँ, तेजस्वी इक शिष्य | 
सुधरे शांता संग ही, रूपा-बटुक भविष्य || 

दीदी का होकर रहे, कौला दालिम पूत | 
 रक्षाबंधन में बंधे, उसको पहला सूत ||

बाँधे भैया सोम के, गुरुकुल में फिर जाय | 
प्रभु से विनती कर कहे, हरिये सकल बलाय || 

दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ | 
राजमहल का प्रमुख बन, हँसता जाए मूढ़ || 

दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |
भाई को ले आइये, माँ को लो बुलवाय ||

सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |
माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||

संदेसा भेजा तुरत, आई सौजा पास |
बीती बातें भूलती, नए नए एहसास ||

छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |
दालिम सा दिखता रमण, विनयशील अति-शिष्ट ||

रमण सुरक्षा हित चला, शान्ता पास तुरन्त |
 रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||

सौजा रूपा बटुक का, हर पल रखती ध्यान |
रानी की सेवा करे, कौला इस दरम्यान ||

राज वैद्य आते रहे, करने को उपचार |
चार बरस में मिट गए, सारे अंग विकार ||

एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |
घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||

 सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |
बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||

सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |
पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||

नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |
पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||

चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |
कब से इक बकरा बंधा, महिना होवे पार ||

एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |
स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||

एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |
आखेटक दल के सहित, सेनापति घबरात ||

बिना योजना के जमी,  उत अबला बलवीर |
हाथों में भाला इधर, सजा धनुष पर तीर ||

तीन घरी बीती मगर,  लगा टकटकी दूर |
राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||

फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |
साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||

होते ही संकेत के,  देते धावा मार |
घोर विषैले तीर से,  होता बाघ शिकार  ||

भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||
छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||

शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |
उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||

सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |
माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||

सौजा ने ऐसे किया, पूरा पश्चाताप |
निश्छल दालिम के लिए,  वर है माँ का शाप ||

शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
वेद कला संगीत के, सीखे सकल सऊर || 

शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
 भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||

गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||

अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||

कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||

रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||

रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||

बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||

फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||

2 comments:

  1. अनमोल दोहे। बहुत बहुत ख़ूब

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  2. दशरथ कौशल्या सहित, रथ को रहे उड़ाय |
    पग धरते देखी सुता, जाय करेज जुड़ाय ||
    सुन्दर है .

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