04 November, 2013

शिशु-शान्ता : मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन

 सर्ग-२ 
शिशु-शान्ता  
भाग-1
जन्म-कथा 
दोहे 

कौशल्या भयभीत हो, ताके सम्बल एक ।
पावे रक्षक भ्रूण का,  फैले शत्रु अनेक || 
  
चारों  दिशा  उदास  हैं,  यत्र-तत्र आतंक |
जिम्मेदारी कौन ले,  कौन जलाये लंक ||  

सारे देवी-देवता, चिंतित रही मनाय |
 अनमयस्क फिरती रहे, बैठे मन्दिर जाय  ||

जीवमातृका  वन्दना, माता  के  सम पाल |
जीवमंदिरों को सुगढ़, रखती रही सँभाल  ||

धनदा  नन्दा   मंगला,   मातु   कुमारी  रूप |
बिमला पद्मा वला सी, महिमा अमिट-अनूप ||

माता  करिए  तो  कृपा, करूँ तोर अभिषेक  |
 शत्रु दृष्टि से ले बचा, बच्चा पाऊं नेक ||

 संध्या को रनिवास में, रानी रह-रह रोय |
उच्छवासें भरती रही, अँसुवन धरा भिगोय ||

दशरथ को दरबार में, हुई घरी भर देर |
कौशल्या दीखे नहीं, अन्दर घुप्प-अंधेर ||

तभी सुबकने की पड़ी, कानों में आवाज |
दासी पर होते कुपित, समझ सके नहिं राज ||

हुआ उजाला कक्ष में, मुखड़ा लिए मलीन |
रानी लेटी भूमि पर, दिखती अति-गमगीन ||

राजा विह्वल हो गए, संग भूमि पर बैठ |
रानी को पुचकारते, सत्य प्रेम की पैठ ||

 बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |
 कौन रुलाया है तुम्हें, करे कौन नाराज ??

निकले अगर भड़ास तो, बढती जीवन-साँस । 
आँसू बह जाएँ अगर, घटे दर्द एहसास ।। 

मद्धिम स्वर फिर फूटता, हिचकी होती तेज |
अपने बच्चे को भला, कैसे रखूं सहेज ||

राजा सुनकर हर्ष से, रानी को लिपटाय |
कहते चिंता मत करो, करूं सटीक उपाय ||

अगली प्रात: वे गए, गुरु वशिष्ठ के पास |
थे सुमंत भी साथ में, जिन पर अति-विश्वास ||

ठोस योजना बन गई, दुश्मन धोखा खाय ||
रानी के इस गर्भ को, जग से रखें छुपाय  ||

अगले दिन दरबार में, आया इक सन्देश |
कौशल्या की मातु को, पीड़ा स्वास्थ-कलेस ||

डोली सजकर हो गई, कौला भी तैयार |
छद्म वेश में सेविका, बैठी अति-हुशियार ||

वक्षस्थल पर झूलता, वही पुराना हार |
जिसको लेकर था भगा, सुग्गासुर अय्यार ||

सेना के सँग हो विदा, डोली चलती जाय |
गिद्धराज ऊपर उड़े, पंखों को फैलाय || 

अभिमंत्रित कर महल को, कौशल्या के पास |
कड़ी सुरक्षा में रखा, दास-दासियाँ ख़ास ||

खर-दूषण के गुप्तचर, छोड़े अपनी खोह |
डोली के पीछे लगे, रहे लगाते टोह ||

छद्म-वेश में माइके, धर कौशल्या रूप |
रानी हित दासी करे, अभिनय सहज अनूप ||

वर्षा-ऋतु फिर आ गई, सरयू बड़ी अथाह |
दासी उत्तर में रही, दक्षिण में उत्साह ||

देख सकें औलाद को, हुई बलवती चाह |
दशरथ  सबपर  रख  रहे, चौकस कड़ी निगाह ||

सात मास बीते मगर, गोद-भराई भूल |
कनक महल रक्षित रहा, रानी के अनुकूल ||

पड़ा पर्व नवरात्रि का, सकल नगर उल्लास |
कौशल्या नहिं कर सकी, पर अबकी उपवास ||

रानी आँगन में जमी, काया रही भिगोय |
शरद पूर्णिमा हो चुकी, अमाँ अँधेरी होय ।।  

माटी की इस देह से, खाटी खुश्बू पाय ।
तन मन दिल चैतन्य हो, कुदरत भी हरषाय ।।

कुंडलियाँ  

देह देहरी देहरे,  दो, दो दिया जलाय ।
कर उजेर मन गर्भ-गृह, कुल अघ-तम दहकाय । 
कुल अघ तम दहकाय , दीप दस घूर नरदहा ।
गली द्वार पिछवाड़ , खेत खलिहान लहलहा ।
देवि लक्षि आगमन, विराजो सदा केहरी ।
सुख समृद्ध सौहार्द, बसे कुल देह देहरी ।। 

किरीट  सवैया ( S I I  X  8 )

झल्कत झालर झंकृत झालर झांझ सुहावन रौ  घर-बाहर ।
  दीप बले बहु बल्ब जले तब आतिशबाजि चलाय भयंकर ।
 दाग रहे खलु भाग रहे विष-कीट पतंग जले घनचक्कर ।
नाच रहे खुश बाल धमाल करे मनु तांडव  हे शिव-शंकर ।।

दोहे 

धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |
शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||

पीड़ा झूठे प्रसव की, होंठ रखे  वो भींच |
रानी सिसकारी भरे, जान सके नहिं नींच ||

रानी हर दिन टहलती, करती  नित व्यायाम |
पौष्टिक भोजन खाय के, करे तनिक आराम ||

कोसलपुर में उस तरफ, दासी का वह खेल |
खर-दूषण के गुप्तचर, रहे व्यर्थ ही झेल ||

शुक्ल फाल्गुन पंचमी, मद्धिम बहे बयार |
सूर्यदेव सिर पर जमे, ईश्वर का आभार ||

पुत्री आई महल में, कौशल्या की गोद |
राज्य ख़ुशी से झूमता, छाये मंगल-मोद ||

एक पाख के बाद में, खबर पाय दश-शीस |
खर-दूषण को डांटता, सुग्गासुर पर रीस ||

कन्या के इस जन्म से, रावण पाता चैन |
डपटा क्षत्रपगणों को, निकसे तीखे बैन || 

छठियारी में सब जमे, पावें सभी इनाम |
स्वर्ण हार पाए वहाँ, दासी का शुभ काम ||

गिद्धराज गिद्धौर को, कर दशरथ का काम | 
सम्पाती से जा मिले, करते शोध तमाम || 

नई-नई दूरबीन से, देख सकें अति दूर | 
प्रक्षेपित कर यान को, भेजें देश सुदूर ||

मालिश करने के लिए, पहुंची कौला धाय |
छूते ही इक पैर को, सुता रही अकुलाय ||

कौशल्या ने वैद्य को, झटपट लिया बुलाय |
जांच परख समुचित करे, किन्तु रहा सकुचाय ||

एक पैर में दोष है, कन्या होय अपंग |
सुनकर अप्रिय वचन यह, रह जाती वह दंग ||

1 comment:

  1. क्‍या बात है रविकर जी बहुत बढ़िया।

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