मच्छरों ने मक्खियों को खुब लताड़ा |
मक्खियाँ क्या छोड़ देतीं, बहुत झाड़ा ||
चूस करके खून तुम शेखी बघारो |
गुन-गुनाकर गीत, सोते जान मारो ||
इस तरह से दिग्विजय घंटा करोगे |
सोये हुए इंसान पर टंटा करोगे ||
मर्म-अंगों पर जहर के डंक मारो |
चढ़ चला ज्वर जोरका मष्तिष्क फाड़ो ||
पहले सुबह या शाम ही काटा किये |
अब रात भर डेंगू - दगा बांटा किये ||
रक्त-मोचित सब चकत्ते नोचते हैं |
नष्ट करने के तरीके खोजते हैं ||
तालियों के बीच तू जिस दिन फँसेगा |
जिन्दगी से हाथ धो, किसपर हँसेगा ||
नीम के मारक धुंवे से न बचेगा ---
राम का मैदान हो या सुअर बाड़ा ||
मच्छरों ने मक्खियों को खुब लताड़ा |
मक्खियाँ क्या छोड़ देतीं, खूब झाड़ा ||
मच्छरों ने मक्खियों की पोल खोली |
मार कर लाखों-करोड़ों आज बोली ||
गन्दगी देखी नहीं कि बैठ जाती -
और दुनिया की सड़ी हर चीज खाती ||
"मारते" तुझको निठल्ले बैठ खाली -
"बैठने से नाक पर" जाती हकाली ||
कालरा सी तू भयंकर महामारी |
अड़ा करके टांग करती भूल भारी ||
मधु की मक्खी आ गईं रोकी लड़ाई |
बात रानी ने उन्हें अपनी बताई ---
फूल-पौधों से बटोरूँ मधुर मिष्टी |
मजे लेकर खा सके सम्पूर्ण सृष्टि ||
स्वास्थ्यवर्धक मै उन्हें माहौल देती |
किन्तु बदले में नहीं कुछ और लेती ||
किन्तु दोनों शत्रु मिलकर साथ बोले--
मत पढ़ा उपकार का हमको पहाड़ा ||
मच्छरों ने मक्खियों को खुब लताड़ा |
मक्खियाँ क्या छोड़ देतीं, खूब झाड़ा ||
वाह क्या बात है ।
ReplyDeleteअति सुन्दर भाव !
ReplyDeleteबहुत सुंदर.
ReplyDeleteतालियों के बीच तू जिस दिन फँसेगा |
ReplyDeleteजिन्दगी से हाथ धो, किसपर हँसेगा ||
मत पढ़ा उपकार का हमको पहाड़ा ||
मच्छरों ने मक्खियों को खुब लताड़ा |
..बहुत खूब!
सरल ,सुन्दर ,सराहनीय प्रस्तुति !
ReplyDeleteआदरणीय रविकर जी।
ReplyDeleteआपने बहुत सुन्दर बाल कविता रची है।
बधायी हो।
बहुत सुन्दर रचना सर जी!बधाई
ReplyDeleteएकदम मनभावन !
ReplyDeleteएक और मन भावन बाल रचना ....
ReplyDeleteBahut umda baal rachnaayein ...
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