कुण्डलियाँ
खाता-पीता घर मिले, यही बाप की चाह |
खाता-पीता घर मिले, यही बाप की चाह |
सुखी रहे बिटिया सदा, पाये प्रेम अथाह |
पाये प्रेम अथाह, हमेशा होय बरक्कत |
करवा देते व्याह, किन्तु दूल्हे की आदत |
रविकर ले सिर पीट, नहीं कोई दिन रीता |
मुर्गा मछली मीट, और वह खाता-पीता ||
दोहा
नहीं हड्डियां जीभ में, पर ताकत भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियां, देखो कभी जरूर ||
कुण्डलियाँ
जंगल ऐसा ही रहा, नहीं हुआ बदलाव |
दोनों चलते ही रहे, अपना अपना दाँव | अपना अपना दाँव, गई गीदड़ की सत्ता |उल्लू की सरकार, करे कोशिश अलबत्ता |बड़ा पुराना मर्ज, इसी से होय अमंगल | करें शिकायत दर्ज, शीघ्र सुधरेगा जंगल ||
दोहा
नहीं हड्डियां जीभ में, पर ताकत भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियां, देखो कभी जरूर ||
कुण्डलियाँ
जंगल ऐसा ही रहा, नहीं हुआ बदलाव |
दोनों चलते ही रहे, अपना अपना दाँव | अपना अपना दाँव, गई गीदड़ की सत्ता |उल्लू की सरकार, करे कोशिश अलबत्ता |बड़ा पुराना मर्ज, इसी से होय अमंगल | करें शिकायत दर्ज, शीघ्र सुधरेगा जंगल ||
खाते पीते घर का लेकिन खाता पीता न हो, सभी माँ बाप की चाह होती है लेकिन सबका नसीब एक जैसा नहीं ..
ReplyDeleteबहुत सही ...
वाह !
ReplyDeleteक्या बात है भाई जी ...