08 July, 2016

बढ़ती ज्यों ज्यों रैन, रहा त्यों त्यों उकताता

व्यथित पथिक बरबस चला, लगा खोजने चैन |
मृग-मरीचिका से अलग, मूँदे मूँदे नैन |

मूँदे मूंदे नैन, वैन वैरी हो जाता |
बढ़ती ज्यों ज्यों रैन, रहा त्यों त्यों उकताता |

उगा देर से चाँद, कल्पना किया व्यवस्थित |
रविकर की मुस्कान, पथिक फिर हुआ अव्यथित ||

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-07-2016) को "इस जहाँ में मुझ सा दीवाना नहीं" (चर्चा अंक-2399) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. हास्य और गांभीर्य आपकी लेखनी दोनों का निर्वाह करने में सदा सफल है !

    ReplyDelete