08 December, 2016

दोहे-

कर रविकर कल से कलह, सुलह अकल से आज।
फिर भी हो यदि मन विकल, प्रभु को दे आवाज।।

रहन-सहन से ही बने, सहनशील व्यक्तित्व।
कर्तव्यों का निर्वहन, सीखे सह-अस्तित्व।

अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।।

रस्सी रिश्ते एक से, समुचित ऐंठ सुहाय।
बिखर जाय कम ऐंठ से, अधिक ऐंठ उलझाय।

श्याम सलोने सा रहा, सुंदर रविकर बाल ।
भैरव बाबा दे बना, सांसारिक जंजाल।।

सोना सीमा से अधिक, दुखदाई है मित्र।
चोर हरे चिन्ता बढ़े, बिगड़े स्वास्थ्य चरित्र।

हुई सकल यात्रा सफल, रहा ज्ञान का हाथ।
अंतिम यात्रा में मगर, धर्म कर्म दे साथ।।

कुल के मंगलकार्य में, करे जाय तकरार।
हर्जा-खर्चा ले बचा, चालू पट्टीदार ।।

नई परिस्थिति में ढलो, ताल-मेल बैठाय।
करो मित्रता धैर्य से, काहे जी घबराय।।

रविकर घिस्सू के अजब, हाव भाव बर्ताव।
कलम व्यर्थ घिसता रहे, कभी न होय अघाव।

1 comment:

  1. नई परिस्थिति में ढलो, ताल-मेल बैठाय।
    करो मित्रता धैर्य से, काहे जी घबराय।।
    ....धीरज ही तो नहीं आज इंसान में .....
    रविकर घिस्सू के अजब, हाव भाव बर्ताव।
    कलम व्यर्थ घिसता रहे, कभी न होय अघाव।
    ..... व्यर्थ कुछ नहीं संसार में, कला के कद्रदान एक दिन जरूर मिलते हैं

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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