05 February, 2017

भारतीय दर्शन (काव्यमयी प्रस्तुति)

भाग 1/1
प्रस्तावना


हरिगीतिका छंद

रूपांतरण भौतिक जगत को कर रहा नित खोखला।
संचार साधन तीव्रगति से ला रहे अब जलजला।
वैज्ञानिकों के शोध पर वह दैत्य घातक भी पला।
अध्यात्म रविकर चिर सनातन कब कहाँ फूला-फला।।



दोहा

सदा सनातन गुण दिखे, भूख-प्यास उल्लास।

मानव भय-अनुराग का, रहा हमेशा दास।।


कुंडलियाँ
भौतिक द्रव्यों की हुई, जैसी उन्नति आज।
वैसी उन्नति से रहा, वंचित मनुज समाज।
वंचित मनुज समाज, वास्तविक हित विसराये।
अजब धर्म आवेग, समस्या बढ़ती जाये।
गौण दार्शनिक-ज्ञान, रुके हैं शोध अलौकिक ।
भोगवाद विस्तार, बढ़ाये सुविधा भौतिक।।

हरिगीतिका छंद
मस्तिष्क-मानव के पुरातन शोध में इतिहास में । 
बहती सनातन-सोच की जीवंत धारा साँस में । 

वह शक्तिशाली-भाव से परिपूर्ण चिंतन है गहे। 
ऋषि-मुनि विचारक-भाव कुल व्यवहार में शाश्वत रहे ।


दोहा

ज्यों उन्नति खाती दिखे, अति-प्राचीन विचार । 
त्यों सजीव दे प्रेरणा, दिखे नवीन प्रकार ॥

हरिगीतिका छंद
अत्यंत ही प्राचीन भावों से भरी संकल्पना । 
जब रूप धरती आधुनिक अद्भुत नवल देती बना । 
सम्मान दे जाती हमेशा श्रेष्ठ अंतर्दृष्टि को 
शत शत नमन शत शत नमन उस दृष्टि को इस सृष्टि को॥

हरिगीतिका छंद
आधुनिक विश्लेषकों मे दृष्टिगत व्यवधान है।
दर्शन सनातन धर्म के प्रति भ्रम भरा अज्ञान है।
संसार मायाजाल सा तो कर्म का संज्ञान लेते । 
बस त्याग तप से मोक्ष की अवधारणा पर ध्यान देते ॥
इन धारणाओं को नहीं गम्भीरता से वे गहें । 
शब्दावली को जंगली ये आधुनिक चिंतक कहें । 
फिर कल्पनामय बोलकर सद्ज्ञान पर हँसते रहें । 
पांडित्य-अभिमानी कहें वे शब्द-आडम्बर कहें ||

मस्तिष्क में प्लेटो अरस्तू प्लाटिनम बेकन भरे । 
भारत भ्रमण वे आधुनिक सौंदर्य-प्रेमी जब करे । 
संस्कृति सनातन को समझने में दिखे असमर्थ जब । 
सम्पूर्ण दर्शन-ज्ञान को वे मूढ़ कहते व्यर्थ तब ||

दोहा 
रखता अभिलाषा प्रबल, चाहे दर्शन ज्ञान । 
वही छात्र पाता इसे, जो है चतुर सुजान । 
रोला 
जो है चतुर सुजान, सनातन धारा पाया ।
सामग्री अद्वितीय, ज्ञान सर्वत्र समाया |
पढ़कर विवरण सूक्ष्म, स्वाद शाश्वत मधु चखता |
भारतीय सुविचार, सतत विद्वान परखता ||

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