लोकगीत लोरी कथा, व्यथा खुशी उत्साह।
मिट्टी के घर में बसे, रविकर प्यार अथाह।।
कंक्रीट सीमेंट में, बही समय की रेत।
व्यवहारिकता बच गयी, चढ़ा स्वार्थ का प्रेत।।
थ्री बी यच के मे रहे, बच के कैसे भाव।
धीरे धीरे ही सही, शुरू आज अलगाव।।
रविकर अच्छे कर्म कर, फल की फिक्र बिसार।
आम संतरा सेब से, पटे पड़े बाजार।।
नींद शान्ति पानी हवा, साँस खुशी उजियार।
मुफ्तखोर लेकिन करें, महिमा अस्वीकार।।
रविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर।
फिर भी यदि छोटा दिखे, रख दे दूर गरूर।।
मत पालो खुद शत्रुता, पा लो उच्चस्थान।
शत्रु मिलें खैरात में, रविकर मान न मान।
पर्व मना या मत मना, मना न हो! मनमीत।
पत्नी भी तो पर्व है, करो मना के प्रीत।।
होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।
लोन लगे लकड़ी जले, तले तेल तन तेज।
रंग उड़े अंतर कुढ़े, फिर से रँग रँगरेज ।।
शिल्पी से शिल्पी कहे, पूजनीय कृति मोर।
पर, प्रभु तेरी कृति कुटिल, खले छले कर-जोर।।
कशिश तमन्ना में रहे, कोशिश कर भरपूर।
लक्ष्य मिले अथवा नही, अनुभव मिले जरूर।।
पढ़ौ वेद नाहीं सखा, साधौ मंतर आज।
पढ़ौ वेदना हीं सखा, हरषै सकल समाज ||
नहीं घडी भर भी रहा, कभी कलाई थाम |
भेज कलाई की घडी, किन्तु किया बदनाम ||
नहीं हड्डियां जीभ में, किन्तु शक्ति भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियाँ, सुन रविकर मगरूर ||
भाँय भाँय करता भवन, लेकिन भाय न भाय ।
ले लुभाय ससुरारि जब, मैया भी भरमाय ॥
जब तन धन सत्ता समय, छोड़ें रविकर साथ।
तब स्वभाव सत्संग सच, समझ पकड़ ले हाथ।।
सॉरी सॉरी नित कहे, रविकर तो बेशर्म।
डॉक्टर सॉरी कह गया, है दस को दशकर्म।।
कुण्डली
बढ़िया घटिया पर बहस, बढ़िया जाए हार |
घटिया पहने हार को, छाती रहा उभार |
छाती रहा उभार, दूर की लाया कौड़ी |
करे सटीक प्रहार, दलीले भौड़ी भौड़ी |
तर्कशास्त्र की जीत, हारता दिखे अगड़िया |
घटिया घटिया रहे, तर्क से हारे बढ़िया ||
बोली, मैंने भी पढ़ी, शांता का प्रतिवाद |
वेद-भाष्य रिस्य सृंग का, कोई नहीं विवाद ||
कामी क्रोधी लालची, पाये बाह्य उपाय ।
उद्दीपक का तेज नित, इधर उधर भटकाय ।
इधर उधर भटकाय, कुकर्मों में फंस जाता ।
अहंकार का दोष, मगर अंतर से आता।
अंग राज्य अति-श्रेष्ठ, नहीं है नारि विरोधी ।
पद मद में हो चूर, बना यह कामी क्रोधी ।।
कुण्डली
भीषण गर्मी से थका, मन-चंचल तन-तेज |
भीग पसीने से रही, मानसून अब भेज |
मानसून अब भेज, धरा धारे जल-धारा |
जीव-जंतु अकुलान, सरस कर सहज नजारा |
भूतल शीतल भाव, दिखाओ प्रभु जी नरमी |
यह तीखी सी धूप, थामिए भीषण गरमी ||
कुण्डली
सावन भी भाये नहीं, मन दारुण तड़पाय ।
मन का पंछी दूर तक, उड़ उड़ वापस आय ।
उड़ उड़ वापस आय, स्वाँस यादें गम लाती ।
सुन गोरी चितलाय, झूल सावन जो गाती ।
भीगे भीगे शब्द, करे यादों को पावन ।
रहा अधर में झूल, भीगता सूखा सावन ।।
कुण्डली
गरज हमारी देख के, गरज-गरज घन खूब ।
बिन बरसे वापस हुवे, धमा-चौकड़ी ऊब ।
धमा-चौकड़ी ऊब, खेत-खलिहान तपे हैं ।
तपते सड़क मकान, जीव भगवान् जपे है ।
त्राहिमाम भगवान् , पसीना छूटे भारी ।
भीगे ना अरमान, भीगती गरज हमारी ।।
कुण्डली
सात्विक-जिद से आसमाँ, झुक जाते भगवान् ।
पीर पराई बाँट के, धन्य होय इंसान ।
धन्य होय इंसान, मिलें दुर्गम पथ अक्सर ।
हों पूरे अरमान, कोशिशें कर ले बेहतर ।
बाँट एक मुस्कान, मिले तब शान्ति आत्मिक ।
दीदी धन्य विचार, यही तो शुद्ध सात्विक ।।
कुण्डली
सावन भी भाये नहीं, मन दारुण तड़पाय ।
मन का पंछी दूर तक, उड़ उड़ वापस आय ।
उड़ उड़ वापस आय, स्वाँस यादें गम लाती ।
सुन गोरी चितलाय, झूल सावन जो गाती ।
भीगे भीगे शब्द, करे यादों को पावन ।
रहा अधर में झूल, भीगता सूखा सावन ।।
कुण्डली
गरज हमारी देख के, गरज-गरज घन खूब ।
बिन बरसे वापस हुवे, धमा-चौकड़ी ऊब ।
धमा-चौकड़ी ऊब, खेत-खलिहान तपे हैं ।
तपते सड़क मकान, जीव भगवान् जपे है ।
त्राहिमाम भगवान् , पसीना छूटे भारी ।
भीगे ना अरमान, भीगती गरज हमारी ।।
कुण्डली
सात्विक-जिद से आसमाँ, झुक जाते भगवान् ।
पीर पराई बाँट के, धन्य होय इंसान ।
धन्य होय इंसान, मिलें दुर्गम पथ अक्सर ।
हों पूरे अरमान, कोशिशें कर ले बेहतर ।
बाँट एक मुस्कान, मिले तब शान्ति आत्मिक ।
दीदी धन्य विचार, यही तो शुद्ध सात्विक ।।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-06-2017) को
ReplyDeleteरविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर; चर्चामंच 2644
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह सुन्दर।
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