26 June, 2017

स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार--


कवि-गिरोह की जब गिरा, रही गिरावट झेल।

अली-कली से ही बिंध्यो, दियो राष्ट्र-हित ठेल।।

जी जी कर जीते रहे, जग जी का जंजाल।

जी जी कर मरते रहे, जीना हुआ मुहाल।।

सम्यक सोच-विचार के, कर सम्यक संकल्प।

कार्य प्रगति पथ पर बढ़े, लक्ष्य अवधि हो अल्प।।


दे कम ज्यादा कामना, क्रमश: सुख दुख मित्र।

किन्तु कामना शून्य-मन, दे आनन्द विचित्र।।

रुतबा सत्ता ओहदा, गये समय की बात।

आज समय दिखला गया, उनको भी औकात।।

मार बुरे इंसान को, जिसकी है भरमार।

कर ले खुद से तू शुरू, सुधर जाय संसार।।

भरी न लुटिया-बुद्धि जब, रविकर लोटा खूब।

मिटा दिया अस्तित्व कुल, ज्ञान-जलधि में डूब।।


अन्य पराजय पीर दे, पराधीनता अन्य।

पतन स्वयं के दोष से, रह रविकर चैतन्य ।।


यह दिमाग अति धूर्त है, चलता अपने आप।।

अच्छे दिल को दे सदा, रविकर दुख-संताप।

पागल दी गल दा नहीं, करें लोग विश्वास।

यद्यपि इस विश्वास की, खुद पर मेहर खास।।

ऊपर तो जाता नहीं, किन्तु काम की चीज।
ऊपर ले जाता हमें, पैसा उन्नति-बीज।।

गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक |
कल से बेहतर आज हो, कभी न घुटने टेक।।

आँख न देखे आँख को, किन्तु कर्मरत संग |

संग-संग रोये-हँसे, भाये रविकर ढंग ||


चमके सुन्दर तन मगर, काले छुद्र विचार |

स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार ||

1 comment: