10 September, 2017

100 दोहे

रस्सी जैसी जिंदगी, तने तने हालात |
एक सिरे पे ख्वाहिशें, दूजे पे औकात ||

है पहाड़ सी जिन्दगी, चोटी पर अरमान।

रविकर झुक के यदि चढ़ो, हो चढ़ना आसान।।

खले मूढ़ की वाह तब, समझदार जब मौन।
काव्य शक्ति-सम्पन्न तो, कवि को भूले कौन।।

दल के दलदल में फँसी, मुफ्तखोर जब भेड़ ।
सत्ता कम्बल बाँट दे, उसका ऊन उधेड़ ।।

गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर।
घर घर मरहम तो नही, मिलता नमक जरूर।।

फूँक मारके दर्द का, मैया करे इलाज।
वह तो बच्चों के लिए, वैद्यों की सरताज।

रोटी सा बेला बदन, अलबेला उत्साह |

माता हर बेला सिके, रही देह नित दाह ||

रखे व्यर्थ ही भींच के, मुट्ठी भाग्य-लकीर।
करे हथेली कर्म तो, बदल जाय तकदीर।।

चक्षु-तराजू तौल के, भार बिना पासंग।
हल्कापन इन्सान का, देख देख हो दंग।।

अपने मुँह मिट्ठू बनें, किन्तु चूकता ढीठ।
नहीं ठोक पाया कभी, वह तो अपनी पीठ।।

बेमौसम ओले पड़े, चक्रवात तूफान।
धनी पकौड़ै खा रहे, खाये जहर किसान।।

अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।

इसी लालसा में गये, रविकर के दिन चार।।

चाय नही पानी नही, पीता अफसर आज।
किन्तु चाय-पानी बिना, करे न कोई काज।।

दिनभर पत्थर तोड़ के, करे नशा मजदूर।

रविकर कुर्सी तोड़ता, दिखा नशे में चूर।।

चुरा सका कब नर हुनर, शहद चुराया ढेर।
मधुमक्खी निश्चिंत है, छत्ता नया उकेर।।

हर मकान में बस रहे, अब तो घर दो चार।
पके कान दीवार के, सुन सुन के तकरार।।

शीलहरण पे पढ़ रही, भीड़ व्याह के मन्त्र |
सहनशील-निरपेक्ष मन, जय जय जय जनतंत्र ||

अधिक आत्मविश्वास में, इस धरती के मूढ़ |
विज्ञ दिखे शंकाग्रसित, यही समस्या गूढ़ ||

धर्म-कर्म पर जब चढ़े, अर्थ-काम का जिन्न |
मंदिर मस्जिद में खुलें, नए प्रकल्प विभिन्न ||

धनी पकड़ ले बिस्तरा, भाग्य-विधाता क्रूर ।
ले वकील आये सगे, रखा चिकित्सक दूर।।

छलके अपनापन जहाँ, रविकर रहो सचेत।
छल के मौके भी वहीं, घातक घाव समेत।।

असफलता फलते फले, जारी रख संघर्ष।
दोनों ही तो श्रेष्ठ गुरु, कर वन्दना सहर्ष।।

रविकर यदि छोटा दिखे, नहीं दूर से घूर।
फिर भी यदि छोटा दिखे, रख दे दूर गरूर।।

होती पाँचो उँगलियाँ, कभी न एक समान।
मिलकर खाती हैं मगर, रिश्वत-धन पकवान ।।

जब से झोंकी आँख में, रविकर तुमने धूल।
अच्छे तुम लगने लगे, हर इक अदा कुबूल।।

भाषा वाणी व्याकरण, कलमदान बेचैन।
दिल से दिल की कह रहे, जब से प्यासे नैन।।

वक्त कभी देते नहीं, रहे भेजते द्रव्य |
घड़ी गिफ्ट में भेज के, करें पूर्ण कर्तव्य ||

शिल्पी से शिल्पी कहे, पूजनीय कृति मोर।
पर, प्रभु तेरी कृति कुटिल, खले छले कर-जोर।।

कशिश तमन्ना में रहे, कोशिश कर भरपूर।
लक्ष्य मिले अथवा नही, अनुभव मिले जरूर।।

तन्त्र-मन्त्र-संयन्त्र को, दे षडयंत्र हराय।

शकुनि-कंस की काट है, केवल कृष्ण उपाय।।

सकते में है जिंदगी, दिखे सिसकते लोग | 
भाग भगा सकते नहीं, आतंकी उद्योग ||

पानी मथने से नहीं, निकले घी श्रीमान |
साधक-साधन-संक्रिया, ले सम्यक सामान ||

नहीं हड्डियां जीभ में, पर ताकत भरपूर |
तुड़वा सकती हड्डियां, देखो कभी जरूर ||

सत्य बसे मस्तिष्क में, होंठों पर मुस्कान।
दिल में बसे पवित्रता, तो जीवन आसान।।

रिश्ते 'की मत' फ़िक्र कर, यदि कीमत मिल जाय।
पहली फुरसत में उसे, देना तुम निपटाय।।

कई साल से गलतियाँ, रही कलेजा साल।
रविकर जब गुच्छा बना, अनुभव मिला कमाल।।

अनुभव का अनुमान से, हरदम तिगुना तेज।
फल बिखरे अनुमान का, अनुभव रखे सहेज।।

जो बापू के चित्र के, पीछे रही लुकाय।
वही छिपकली रात में, जी भर जीव चबाय ।।

बेवकूफ बुजदिल सही, सही हमेशा पीर।
किन्तु रहा रिश्ता निभा, दिल का बड़ा अमीर।।

नेह-जहर दोपहर तक, हहर हहर हहराय।
देह जलाये रात भर, फिर दिन भर भरमाय।।

शूकर उल्लू भेड़िया, गरुड़ कबूतर गिद्ध।
घृणा मूर्खता क्रूरता, अति मद काम निषिद्ध।।

आसमान में दूर तक, तक तक हारा जंतु । 
पानी तो पूरा पड़ा, प्यासा मरा परन्तु । 

करे फैसला क्रोध यदि, वादा कर दे हर्ष।
शर्मसार होना पड़े, रविकर का निष्कर्ष।।

खड्ग तीर चाकू चले, बरछी चले कटार।
कौन घाव गहरा करे, देखो ताना मार ।।

नोटों की गड्डी खरी, ले खरीद हर माल।
किन्तु भाग्य परखा गया, सिक्का एक उछाल।।

भले कभी जाता नहीं, पैसा ऊपर साथ।
लेकिन धरती पर रखे, रविकर ऊँचा माथ।।

करे कदर कद देख के, जहाँ मूर्ख इंसान |
निरंकार-प्रभु को भला, ले कैसे पहचान ||

उड़ो नहीं ज्यादा मियां, धरो धरा पर पैर।
गुरु-गुरूर देगा गिरा, उड़ो मनाते खैर ।।

कच्चे घर सच्चे मनुज, गये समय की बात।
रहे घरौंदे जो बना, उन्हें बचा ले तात।।

पहले तो लगती भली, फिर किच-किच प्रारम्भ।
रविकर वो बरसात सी, लगी दिखाने दम्भ।।

रविकर तेरी याद ही, सबसे बड़ा प्रमाद।
कई व्यसन छोटे पड़े, धंधे भी बरबाद।।

करो प्रार्थना या हँसो, दोनो क्रिया समान।
हँसा सको यदि अन्य को, देंगे प्रभु वरदान।।

यदा कदा नहला रही, किस्मत की बरसात।
नित्य नहाने के लिए, करो परिश्रम तात।।

असफल जीवन पर हँसे, रविकर धूर्त समाज।
किन्तु सफलता पर यही, ईर्ष्या करता आज।।

विकट समस्या देख वो, गुणा-भाग कर भाग।
भाग-दौड़ कर भाग ले, रविकर पकड़ सुराग।।

भूख भक्ति से व्रत बने, भोजन बनता भोग।
पानी चरणामृत बने, व्यक्ति मनुज संयोग।।

भोजन पैसा सुख अगर, नहीं पचाया जाय |
चर्बी मद क्रमश: बढ़ें, पाप देह को खाय ||

घडी-साज अतिशय कुशल, देता घडी सुधार |
बिगड़ी जब उसकी घडी, गया घड़ी सब हार ॥ 

तरु-शाखा कमजोर, पर, गुरु-पर, पर है नाज ।
कभी नहीं नीचे गिरे, ऊँचे उड़ता बाज।।

पहले दुर्जन को नमन, फिर सज्जन सम्मान।
पहले तो शौचादि कर, फिर कर रविकर स्नान।।

इम्तिहान है जिन्दगी, दुनिया विद्यापीठ।
मिले चरित्र उपाधि ज्यों, रंग बदलते ढीठ।।

करो माफ दस मर्तवा, पड़े न ज्यादा फर्क।
किन्तु भरोसा मत करो, उनसे रहो सतर्क।।

कवि-गिरोह की जब गिरा, रही गिरावट झेल।
अली-कली से ही बिंध्यो, दियो राष्ट्र-हित ठेल।।

जी जी कर जीते रहे, जग जी का जंजाल।
जी जी कर मरते रहे, जीना हुआ मुहाल।।

सम्यक सोच-विचार के, कर सम्यक संकल्प।
कार्य प्रगति पथ पर बढ़े, लक्ष्य अवधि हो अल्प।।

दे कम ज्यादा कामना, क्रमश: सुख दुख मित्र।
किन्तु कामना शून्य-मन, दे आनन्द विचित्र।।

रुतबा सत्ता ओहदा, गये समय की बात।
आज समय दिखला गया, उनको भी औकात।।

मार बुरे इंसान को, जिसकी है भरमार।
कर ले खुद से तू शुरू, सुधर जाय संसार।।

भरी न लुटिया-बुद्धि जब, रविकर लोटा खूब।
मिटा दिया अस्तित्व कुल, ज्ञान-जलधि में डूब।।

अन्य पराजय पीर दे, पराधीनता अन्य।
पतन स्वयं के दोष से, रह रविकर चैतन्य ।।

आँख न देखे आँख को, किन्तु कर्मरत संग |
संग-संग रोये-हँसे, भाये रविकर ढंग ||

चमके सुन्दर तन मगर, काले छुद्र विचार |
स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार ||

जब गठिया पीड़ित पिता, जाते औषधि हेतु।
डॉगी को टहला रहा, तब सुत गाँधी सेतु।।

समझौते करके रखा, दुनिया को खुशहाल।
मैं भी सबसे खुश रहा, सबकी त्रुटियाँ टाल।।

अच्छी आदत वक्त की, करता नहीं प्रलाप।
अच्छा हो चाहे बुरा, गुजर जाय चुपचाप।।

लक्ष्मण खींचे रेख क्यों, क्यों जटायु तकरार।
बुरा-भला खुद सोच के, नारि करे व्यवहार।।

लोकगीत लोरी कथा, व्यथा खुशी उत्साह।
मिट्टी के घर में बसे, रविकर प्यार अथाह।।

नींद शान्ति पानी हवा, साँस खुशी उजियार।
मुफ्तखोर लेकिन करें, महिमा अस्वीकार।।

ये तन धन सत्ता समय, छोड़ें रविकर साथ।
सच स्वभाव सत्संग सह, समझ पकड़ ले हाथ।।

सबको देता अहमियत, ले हाथों में हाथ।
बुरे सिखा जाते सबक, भले, भले दें साथ।।

जर्जर थुन्नी-धन्नियाँ, रविकर छत दीवार।
चुका चुका भाड़ा अगर, चल हो जा तैयार।

जर्जर होते जा रहे, पल्ला छत दीवार।
खोज रहा घर दूसरा, रविकर सागर पार।।।।

लेडी-डाक्टर खोजता, पत्नी प्रसव समीप।
बुझा बहन का जो चुका, रविकर शिक्षा-दीप।।

गिरे स्वास्थ्य दौलत गुमे, विद्या भूले भक्त।
मिले वक्त पर ये पुन:, मिले न खोया वक्त।।

कभी सुधा तो विष कभी, मरहम कभी कटार।
आडम्बर फैला रहे, शब्द विभिन्न प्रकार।।

दिखे परस्पर आजकल, जलते तपते लोग।
जले-तपे धरती तभी, लू-लपटें ले भोग।।

करे कदर कद देख के, जहाँ मूर्ख इन्सान।
निरंकार प्रभु को भला, ले कैसे पहचान।।

दुर्जन पर विश्वास कर, पाई थोड़ी पीर।
सज्जन पर शंका किया, पूरा दुखा शरीर।।

रविकर रोने के लिए, मिले न कंधा एक।
चार चार कंधे मिले, बिलखें आज अनेक।।

भूमि उर्वरा वायु जल, पौध-पुत्र अनुकूल।
किन्तु छाँह में ये कभी, सके नहीं फल-फूल।।

वैसे तो टेढ़े चलें, कलम शराबी सर्प।
पर घर में सीधे घुसें, छोड़ नशा विष दर्प।।

दीन कुटुम्बी से लिया, रविकर पल्ला झाड़।
खोले पल्ला गैर हित, गाँठ-गिरह को ताड़।।

टका टके से मत बदल, यह विनिमय बेकार ।
दो विचार यदि लो बदल, होंगे दो दो चार।।

साँस खतम हसरत बचे, रविकर मृत्यु कहाय।
साँस बचे हसरत खतम, मनुज मोक्ष पा जाय।।

शत्रु छिड़क देता नमक, मित्र छिड़कता जान।
बड़े काम का घाव प्रिय, हुई जान-पहचान।।

अधिक मिले पहले मिले, किस्मत वक्त नकार।
इसी लालसा से व्यथित, रविकर यह संसार।।

चाहे जितना रंज हो, कसे तंज पर तंज।
किन्तु कभी मारे नहीं, अपनों को शतरंज।।

अनुभव का अनुमान से, हरदम तिगुना तेज।
फल बिखरे अनुमान का, अनुभव रखे सहेज।।

आतप-आफत में पड़ा, हीरा कॉच समान।
कॉच गर्म होता दिखा, हीरा-मन मुस्कान।

प्रतिभा प्रभु से प्राप्त हो, देता ख्याति समाज ।
मनोवृत्ति मद स्वयं से, रविकर आओ बाज।।

सराहना प्रेरित करे, आलोचना सुधार।
निंदक दो दर्जन रखो, किन्तु प्रशंसक चार।

रविकर तरुवर सा तरुण, दुनिया भुगते ऐब।
एक डाल नफरत फरत, दूजे फरे फरेब।

पूरे होंगे किस तरह, कहो अधूरे ख्वाब।
सो जा चादर तान के, देता चतुर जवाब।।

जब पीकर कड़ुवी दवा, मुँह बिचकाये बाल।
खरी बात सुन कै करें, बड़े लोग तत्काल।

भजन सरिस रविकर हँसी, प्रभु को है स्वीकार।
हँसा सके यदि अन्य को, सचमुच बेड़ापार।।

कलमबद्ध हरदिन करें, वह तो रविकर पाप।
किन्तु कभी रखते नहीं, इक ठो दर्पण आप।।


बिटिया रो के रह गई, शिक्षा रोके बाप।
खर्च करे कल ब्याह में, ताकि अनाप-शनाप।।

गम का ले अनुभव विकट, चलो तलाशें हर्ष।
करो भरोसा स्वयं पर, तब रविकर उत्कर्ष।।

काट हथेली को रही, हर पन्ने की कोर।
खिंची भाग्य रेखा नई, खिंचा तुम्हारी ओर।।

2 comments:

  1. गजब । धारा 144 दोहों की । बहुत सुन्दर दोहे ।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-09-2017) को गली गली गाओ नहीं, दिल का दर्द हुजूर :चर्चामंच 2725 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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