29 March, 2011

चेहरा धुआं-धुआं है

श्मशान कर रहा ये मौसम हुआ पराया 
जल की फुहार जलती, फूंकता कुआँ है
लोमड़ी सिखाती सब प्रेम से रहो संग 
मल्हार गीत गाता देखो गधा मुआं है

इस राजनीति में अब तल्खियाँ रही बस 
उजाड़ता चमन को खुद ही बागवां है
रहजन-व-राही-रहबर पहचान लो तो तोबा 
देख 'रविकर' सबका चेहरा धुआं-धुआं है 
  

2 comments:

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  2. रवीकर जी आपकी ये कविता राजनीति का एक ऐसे रूप को दिखती है जो की बहुत ही निराशाजनक है की किस प्रकार से सिर्फ़ राजनीति में अब तल्खीयाँ ही बची है आप अपनी सुन्दर कविताओं को शब्दनगरी पर भी लिखकर और भी पाठकों तक पहुँचा सकते है .........

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