(1)
सोना अब सोना हुआ, खाना हुआ खराब |
पेशानी पर बल पड़े, गोबर दिखे कबाब ||
(2)
चिकचिक जब आदत बने, बोली करे बवाल |
तीन-पाँच हर-रोज की, करती खड़े सवाल ||
(3)
रब की रहमत जल रही, बुझे नहीं ये आग |
आँख कान मुँह से बंधा, बांधे कुटिल दिमाग ||
(4)
जिस घर में नित क्लेश हो, बाढ़े वाद-विवाद |
नष्ट होय सुख शांति औ बढ़ें कष्ट अवसाद ||
नष्ट होय सुख शांति औ बढ़ें कष्ट अवसाद ||
(5)
जग सारा अपनाय के, घर के दीन बराय |
उलटी माला फेर के, जियरा बड़ा जुडाय ||
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ReplyDeleteजग सारा अपनाय के, घर के दीन बराय
उलटी माला फेर के, जियरा बड़ा जुडाय....
दिनेश जी ,
बहुत ही सुन्दर दोहे हैं। सार्थक समझाइश देते हुए। कुछ लोग घर और बाहर दोनों का बराबर ख़याल रखते हैं।
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बिगत २५ वर्षों में जितना सुधार
ReplyDeleteनहीं हुआ है लेखन में,
(मानसिक भी)
वो ब्लॉग पर आने से दो माह में हुआ,
धन्यवाद गुल,
धन्यवाद गुलशन
धन्यवाद भगोड़े गुलफाम
तभी तो मिल सके इरफ़ान
खजाना कह सकते है, हम तो,
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक,
ReplyDeleteसच कहा आपने, मुझे मिल गया खजाना,
आपकी टिप्पणियां "ZEAL " पर देखी--
"जाट-देवता" देखकर वैसे ही घबराया करता था
जैसे अज्ञानी, "शनि- देवता" से---
परन्तु आज देवता के दर्शन हए.
आपके अपने परिवार से मिला
बाबू जी को शत-शत नमन
बच्चों को ढेर सारा प्यार.
मेरे ब्लॉग पर बच्चों का परिचय देखिएगा.
बच्चों को पर्याप्त से थोडा अधिक समय मिलना ही चाहिए
शेष अगली मुलाक़ात में