उहापोह में विन्धा हुआ इंसान है,
व्यथा-व्यथित सा मिला उसे वरदान है,
न अतीत का गर्व, अन्त अन्जान है,
वर्तमान की पीर, बड़ा व्यवधान है,
वन्दना के अर्थ उसको छल रहे
उपदेश को आदेश पूरे खल रहे
सब चुगा के हाथ, मानव मल रहे
अग्नि ठंडी, जल के सिन्धु जल रहे
समुद्र जलता आ रहा है शहर में
कांपती यह लेखनी हर बहर में
कष्ट-ग्रहण देखते हर दोपहर में
घुड-घुडाते शान्त होते घन-घहर में
आस्था के दीप जल के जल चुके हैं
प्रेम-बंधन सड़ चुके हैं गल चुके हैं
कलुषित कुकर्मी कीट कब के पल चुके हैं
पुन्य के पावन - पतंगे बल चुके हैं
सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबुरे हाल पर अच्छी कविता!
ReplyDeleteआस्था के दीप जल के जल चुके हैं
ReplyDeleteप्रेम-बंधन सड़ चुके हैं गल चुके हैं
कलुषित कुकर्मी कीट कब के पल चुके हैं
पुन्य के पावन - पतंगे बल चुके हैं
क्या खूब कही.वाह
भावों का सुन्दर संयोजन ..अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteसमुद्र जलता आ रहा है शहर में
ReplyDeleteकांपती यह लेखनी हर बहर में
कष्ट-ग्रहण देखते हर दोपहर में
घुड-घुडाते शान्त होते घन-घहर में ... बहुत अच्छे भाव
आभार ||
ReplyDeleteआभार ||
ReplyDeleteआस्था के दीप जल के जल चुके हैं
ReplyDeleteप्रेम-बंधन सड़ चुके हैं गल चुके हैं
कलुषित कुकर्मी कीट कब के पल चुके हैं
पुन्य के पावन - पतंगे बल चुके हैं
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गजब की अभिव्यक्ति।
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आभार ||
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया रचना, बधाई
ReplyDeleteतन्मयता से टिप्पणी, करती तन्मय रोज |
ReplyDeleteब्लाग-जलधि से अमृता, जीवन लेती खोज ||