झुर-मुटों में बैठ कर नैना लड़ाती |
वादियों में साथ मिलकर गीत गाती |
रूठ करके मानती, तुमको मनाती |
पास झूले पर बिठा झूला झुलाती |साइकिल पर संग सचमुच बैठ जाती |
और जाकर पार्क में पिकनिक मनाती--पर
कैरियर तो है नहीं || ठीक हूँ बस मैं यहीं ||
पुस्तकों में प्रेम-पत्रों को रखा |
कुल्फियों का स्वाद ले संग में चखा
याद में मैं रतजगी करती रही |
प्यार में जीती रही, मरती रही |
डांट भी दस बार घर में खा चुकी |
सांसारिक बात माँ समझा चुकी --के
कैरियर तो है नहीं || ठीक हूँ बस मैं यहीं ||
साइकिल पर संग सचमुच बैठ जाती |
ReplyDeleteऔर जाकर पार्क में पिकनिक मनाती--
कैरियर तो है नहीं || ठीक हूँ बस मैं यहीं |
बहुत शानदार प्रस्तुति.
सच है, ये तो सोच में
ReplyDeleteशामिल होना ही चाहिए ||
व्यवहारिक होना बुरी बात नहीं||
आभार ||
कैरियर तो है नहीं , ठीक हूँ बस मैं यहीं |
ReplyDeleteबहुत सुंदर भोली भाली बचपन की कविता ,बहुत शानदार प्रस्तुति.
आभार ||
ReplyDeleteहाँ, इधर मन बड़ा आंदोलित और
ReplyDeleteविक्षुब्ध था राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में.||
सो एक हलकी-फुलकी मन को
तसल्ली देने वाली रचना हो गई ||
bahut achchhi kavita
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteआभार, आपका |
ReplyDeleteअमृता तन्मय जी ||