17 August, 2011

कहो तो न जियूं ||



इसी  गली  से  क्यूँ ?

तुम  गुजरते  हो  यूँ  

निर्लिप्त - निर्विकार  

कहो  तो  न  जियूं ||

ओ प्रेम-दीवानी --
*बागर पर बैठी रानी !   * नदी के किनारे बेहद ऊंची जगह
बादल आये
बरसे 
प्रेम-जल बाढ़ा--
कई बन्ध टूटे
पर अब भी
जीवन नैया
मिलन को तरसे
तुम क्यूँ रूठे ?? 

9 comments:

  1. अरसे बाद --
    उन गुजरी गलियों से गुजरा ||

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  2. किसकी हिम्मत है, आपको रोकने की?

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  3. बहुत सुन्दर..मन को छू गयी.

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  4. दिल को छूने वाली मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  5. जीने के लिए किसी और की नहीं बल्कि अपनी इच्छा का होना ज्यादा ज़रूरी है. आपकी प्रस्तुति कुछ समझ से बाहर है.

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  6. बचपन की एक बात याद आ गई-
    एक बार दूकान पर जलेबी की सजी थाली देख कर अम्मा से बोला कि अम्मा मैं जलेबी नहीं खाऊँगा जबकि अम्मा ने पूछा भी नहीं था कि जलेबी खाओंगे अम्मा समझ गईं और कहीं नहीं बेटा तुम जलेबी ज़ुरूर खाओं...और मुझे जलेबी मिल गई

    बहुत सुन्दर...

    इसे भी देखें-
    एक 'ग़ाफ़िल' से मुलाक़ात याँ पे हो के न हो

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