निर्बुद्धि की जिन्दगी, सुख-दुःख से अन्जान |
निर्बाधित जीवन जिए, डाले न व्यवधान ||
बुद्धिमान करता रहे , खाकर-पीकर मौज | एकाकी जीवन जिए, नहीं बढ़ाये फौज ||
बुद्धिवादी परिश्रमी, पाले घर परिवार |
मूंछे ऐठें रुवाब से, बैठे पैर पसार ||
बुद्धिजीवी का बड़ा, रोचक है अन्दाज |
जिभ्या ही करती रहे, राज काज आवाज ||
बुद्धियोगी हृदय से, लेकर चले समाज |
करे भलाई जगत का, दुर्लभ हैं पर आज ||
बेमतलब कहाँ , बड़े काम की बक -बक!
ReplyDeletesahi kaha...kabhi kabhi bematlab ki bat bhi bade matlab liye huye hoti hai
ReplyDeleteसबसे भले बिमूढ़, जिन्हें ना व्यापत जगत गति.
ReplyDeleteबढ़िया दोहे काम की बात. बधाई सुंदर प्रस्तुति के लिये.
निर्बुद्धि की जिन्दगी, सुख-दुःख से अन्जान |
ReplyDeleteअपुन का तो यही सत्य है...
अति सार्थक बकबक है, सिखलाते है मर्म |
ReplyDeleteसरसता क्या जीवन की, क्या जीवन का धर्म ||
सार्थक प्रस्तुति रविकर जी...
सादर बधाई...
बधाई सुंदर प्रस्तुति के लिये.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति वाह!
ReplyDeletebadhaayee ravikar ji
ReplyDeleteaapke dohe man na mohe ,mumkin naheen
satya dohon men kaun rachtaa hai kaheen
vaastav men sundar dohe
laalsaa hai anvarat sach lekhni chaltee rahe .
बुद्धियोगी हृदय से, लेकर चले समाज |
ReplyDeleteकरे भलाई जगत का, दुर्लभ हैं पर आज ||
.......... आभार।
सही विवेचना की है आपने ।
बहुत बढिया
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