सारे दुःख की जड़ यही, रखें याद संजोय |
समय घाव न भर सका, आँखे रहें भिगोय ।
आँखे रहें भिगोय, नहीं मांगें छुटकारा ।
समय घाव न भर सका, आँखे रहें भिगोय ।
आँखे रहें भिगोय, नहीं मांगें छुटकारा ।
सीमा में चुपचाप, मौन ही नाम पुकारा ।
रविकर पहला प्यार, हमेशा हृदय पुकारे ।
दिख जाये इक बार, मिटें दुःख मेरे सारे ।।
चीनी ड्रैगन लीलता, त्रिविष्टप संसार ।
दैव-शक्ति को पड़ेगा, पाना इससे पार ।
पाना इससे पार, मरे न गन से ड्रैगन ।
देखेगा गरनाल, तभी यह काँपे गन-गन ।
भरा पूर्ण घट-पाप, ढूँढ़ जग चाल महीनी ।
होय तभी यह साफ़, बड़ी कडुवी यह चीनी ।।
दैव-शक्ति को पड़ेगा, पाना इससे पार ।
पाना इससे पार, मरे न गन से ड्रैगन ।
देखेगा गरनाल, तभी यह काँपे गन-गन ।
भरा पूर्ण घट-पाप, ढूँढ़ जग चाल महीनी ।
होय तभी यह साफ़, बड़ी कडुवी यह चीनी ।।
होय तभी यह साफ़, बड़ी कडुवी यह चीनी ।।कृपया ढूंढ /ढूढ़ जो भी शुद्ध रूप है कर ले बजाय दूंढ़ के .दूंढ़ कोई जन -भाषा का शब्द तो नहीं है .
ReplyDeleteप्रस्तुति बहु -आयामीय है .बढ़िया है -
रविकर पहला प्यार, हमेशा हृदय पुकारे ।
दिख जाये इक बार, मिटें दुःख मेरे सारे ।।
समय घाव न भर सका, आँखे रहें भिगोय ।
ReplyDeleteसमय निर्मम जो है...
सुन्दर प्रस्तुति! सादर!
पहले-पहले प्यार की, रहती मीठी याद।
ReplyDeleteशादी के पश्चात तो, जीवन है वरबाद।।
ब्लॉग जगत पर बह चली , गेय-काव्य की धार |
Deleteकौशल अरुण हबीब जी, गुरुवर है आभार ||
टिप्पणियों से पोस्ट को, सजा रहे हैं आप।
ReplyDeleteमापडण्ड के साथ में, रहे रास्ता नाप।।
जो गाने के योग्य हो, काव्य उसी का नाम।
ReplyDeleteरबड़छंद का काव्य में, बोलो क्या है काम।।
रबड़-छंद में मिल रहा, रबड़ी जैसा स्वाद |
Deleteपैंतिस चालीस टिप्पणी, है मिलती खुब दाद |
करता चौबीस टिप्पणी, पाता हूँ मैं चार |
सिखा सके विद्वान जो, दूँ शत शत आभार ||
आते हैं सत्संग में, गिने-चुने ही लोग।
ReplyDeleteजिस्मनुमायस का सदा, मन को भाता रोग।।
न्योता भेजो मंच का, समझें मूर्ख प्रपंच |
Deleteखुद को ग्यानी कह रहे, छोड़ गए दो मंच ||
रचना, टिप्पणी और प्रत्युत्तर सभी बहुत बढ़िया, बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteहम तो जीते प्रेम में,पहला हो कि पंचम
ReplyDeleteवर्तमान ही है अहम,कैसे रखें संयम!
सही है भाई |
Deleteवर्तमान को भोगिये, बीती ताहि विसार |
मिलना-जुलना कुछ नहीं, व्यर्थ बढ़ाये रार ||