गंभीर हास्य
संध्या को कर वन्दना, रात न क्रंदन होय ।
भक्ति से भोजन मिले, होय भोर सुख सोय ।।
दिन-भर की आवारगी, हो जाएगी माफ़ ।
साँझ परे घर घुस करो, सारे बर्तन साफ़ ।।
सुबह उठे आलस हटे, खटिये घंटे चार ।
बेड पर ही टी सर्व हो, झाड़ू पोछा मार ।।
माली हालत देख के, कर माली का काम ।
ड्युटी से पहले ख़तम, होवे काम तमाम ।।
बीस साल तक प्यार से, गली हमेशा दाल ।
भीगी बिल्ली बन रहो, बेटे देते ताल ।।
बेटे बेटी की तरफ, नहीं उठाना आँख ।
खलल पड़ी तफरीह में, लागे बट्टा शाख ।।
वाह क्या बात है!!!
ReplyDelete:-)
ReplyDeleteकर भला...हो भला....
इस कविता की तारीफ करूँ भी तो कैसे!!!!
सादर.
कई रंगों से युक्त जीवन की दिनचर्या !
ReplyDeleteदे दी है प्रभु आपने, कितनी अच्छी सीख ।
ReplyDeleteरोचक!
ReplyDeleteबहुत कीमती सीख है, सच्चे सम्यक बोल।
ReplyDeleteहसी हसी में खोल दी, कितनों की ही पोल।
आभार भाई जी
Deleteबदन ढोल सा हो चुका, अन्दर पोलमपोल |
उनके तेवर से हुई, सम्यक बुद्धि गोल |