दोहे
छंद दिखे छल-छंद जब, संध्या जनित प्रभाव।
दृष्ट जलन्धर की गई, तुलसी प्रति दुर्भाव ।।
पुरंधरी पुरुषार्थ पर, रह जाती चुपचाप ।
बंध्या का अपदंश सह, सहती रहती ताप ।।
सास रही कल तक बधू , जी में न संतोष ।
कुल की नभ्या बन गई, सुनो गर्व उद्घोष ।।
छंद दिखे छल-छंद जब, संध्या जनित प्रभाव।
दृष्ट जलन्धर की गई, तुलसी प्रति दुर्भाव ।।
पुरंधरी पुरुषार्थ पर, रह जाती चुपचाप ।
बंध्या का अपदंश सह, सहती रहती ताप ।।
सास रही कल तक बधू , जी में न संतोष ।
कुल की नभ्या बन गई, सुनो गर्व उद्घोष ।।
मोटा दाहिज मिल गया, कुलक्षणा जो पूर्व ।
घर-भर की प्यारी बनी, दिव्या हुई अपूर्व ।।
पद पर पदतल पाय के, ढूंढे सच्चा भाव ।
रज-कण छाये मन-पटल, वो पहले बिलगाव ।।
पद पर पदतल पाय के, ढूंढे सच्चा भाव ।
रज-कण छाये मन-पटल, वो पहले बिलगाव ।।
गन्दाजल होती गजल, गन्दी हो जब सोंच ।
वाह वाह कर दो सखे, पाओगे उत्कोच ।।
kya baat hai....
ReplyDeleteगन्दाजल होती गजल, गन्दी हो जब सोंच ।
ReplyDeleteवाह वाह कर दो सखे, पाओगे उत्कोच ।।
अर्थ छटा मुखरित है .
लो जी कर दिया वाह वाह पर इन खूबसूरत दोहों के लिये ।
ReplyDeleteचुप रहकर हां में सिर हिलाना ही विकल्प छोड़ा आपने।
ReplyDeleteकमाल के दोहे ... जादू है आपकी लेखनी में ...
ReplyDeleteसभी दोहे बहुत उम्दा हैं!
ReplyDeleteभांति भांति के दर्द हैं, भांति भांति के मर्म।
ReplyDeleteजो देखा वह कह दिया, यही कवि का धर्म।।
बहुत खूब! लाज़वाब और सटीक दोहे...
ReplyDeleteजादू वही जो सर चढ़ बोले ,दोहा हो जाए रविकर जो बोले .
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