फागुन और श्रावणी
फागुन से मन-श्रावणी, अस्त व्यस्त संत्रस्त
भूली भटकी घूमती, मदन बाण से ग्रस्त ।
मदन बाण से ग्रस्त, मिलन की प्यास बढाये ।
जड़ चेतन बौराय, विरह देहीं सुलगाये ।
तीन मास संताप, सहूँ मै कैसे निर्गुन ?
डालो मेघ फुहार, बड़ा तरसाए फागुन ।।
आश्विन और ज्येष्ठ
आश्विन की शीतल झलक, ज्येष्ठ मास को भाय।
नैना तपते रक्त से, पर आश्विन इठलाय ।
पर आश्विन इठलाय, भाव बिन समझे कुत्सित।
मर्यादित व्यवहार, ज्येष्ठ से हरदम इच्छित ।
मेघ देख कर खिन्न, तड़पती तड़ित तपस्विन ।
भीग ज्येष्ठ हो शांत , महकती जाती आश्विन ।।
sundar prastuti..धारा ४९८-क भा. द. विधान 'एक विश्लेषण '
ReplyDeleteबहुत उम्दा!!
ReplyDelete...पूरे बारहमासे की प्रतीक्षा है !
ReplyDeleteसुन्दर आकलन !
तीन मास संताप, सहूँ मै कैसे निर्गुन ?
ReplyDeleteडालो मेघ फुहार, बड़ा तरसाए फागुन ।।
काव्य सौन्दर्य देखते ही बन पड़ा है इस प्रस्तुति में .इसे कहतें हैं सात्विक विरह की आंच को ,शातल करे फुहार श्रावणी ...
बहुत ही बढि़या प्रस्तुति।
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