कुंडली
खिड़की झिडकी खा रही, काँच उभारे अक्स ।
परदे गरदे से भरे, नहीं रहे हैं बख्स ।
नहीं रहे हैं बख्स, बसाया कैसे दिल में ?
दगाबाज यह जीव, घूमता हर महफ़िल में ।
घुसता धक्का-मार, खिड़कियाँ देखे भिड़की ।
जाए काँच बिखेर, थपेड़े खाए खिड़की ।।
दोहा
दिल-दर्पण के काँच को, लगी धाँस मन-जार ।
तन-खिड़की झिडकी गई, भंगुर छिटक अपार।।
इसके अर्थ में कुछ तो व्यावहारिक पक्ष है कुछ आध्यात्मिक भी।
ReplyDeleteअब इसका मौसम भी आ रहा है...!
ReplyDeleteबिलकुल ठीक पकड़ा !
दिल-दर्पण के काँच को, लगी धाँस मन-जार ।
ReplyDeleteतन-खिड़की झिडकी गई, भंगुर छिटक अपार।।
बढ़िया प्रस्तुति रविकर जी की .(.कृपया यहाँ भी पधारें - )
कैंसर रोगसमूह से हिफाज़त करता है स्तन पान .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/05/blog-post_01.html
क्या बात है..बहुत अच्छी रचना...
ReplyDeleteनीरज