छप्पय
हुवे हजारों साल, डाल पीताम्बर आये ।
कुरू-क्षेत्र में जाय, महाभारत लड़वाए ।
हुवे डेढ़ सौ साल, आय मोहन अधनंगे ।
सत्य अहिंसा ढाल, भगाए धूर्त लफंगे ।
अभी आठ-नौ साल में, लौट मन-मोहन आया ।
अर्थ व्यर्थ कब का हुआ, रोज पब्लिक लुटवाया ।।
behtreen...,.
ReplyDeleteहीरे जैसी धार, कलम ने इनकी पाई।
ReplyDeleteकह देते सन्नाट, न कोई बात छुपाई।
शेर रहे या बाघ, निडर हो कान मरोड़े।
खींचे सबकी खाल, न 'फैजाबादी' छोड़ें।
यही धर्म हर कवि निभाए, जगा चले इस देश को।
समय पर तिरशूल उठा कर, धारे शंकर वेश को।
सादर।
बहुत दिनों के बाद छप्पय पढ़ा। अब तो ये सब विधा गायब ही होते जा रही हैं।
ReplyDeleteसुंदर व्यंग्य भरी कविता !!
ReplyDeleteWaah sir g khub kahi ....
ReplyDeleteWaah sir g khub kahi ....
ReplyDeletethoughtful poem
ReplyDeleteमन मोहन ने तो मन को उचाट दिया ।
ReplyDeleteपर आपकी कुडली जबरदस्त ।