माया मथुरा साथ, काशी कांची अवंतिका |
महामोक्ष का पाथ, श्रेष्ठ अयोध्या द्वारिका ||10||
अंतरभूमि प्रवाह, सरयू सरसर वायु सी
संगम तट निर्वाह, पूज घाघरा शारदा ||11||
सरयू जी
पुरखों का इत वास, तीन कोस बस दूर है |
बचपन में ली साँस, यहीं किनारे खेलता ||12||
परिक्रमा श्री धाम, होय सदा हर फाल्गुन|
पटरंगा मम ग्राम, चौरासी कोसी मिले ||13||
थे दशरथ महराज, उन्तालिस निज वंश के |
रथ दुर्लभ अंदाज, दशों दिशा में हांक लें ||14||
पारिजात (किन्नूर)
पटरंगा से 3 कोस
पिता-श्रेष्ठ 'अज' भूप, असमय स्वर्ग सिधारते |
निकृष्ट कथा कुरूप, चेतो माता -पिता सब ||15||
निकृष्ट कथा कुरूप, चेतो माता -पिता सब ||15||
दशरथ बाल-कथा --
दोहा
इंदुमती के प्रेम में, भूपति अज महराज |
लम्पट विषयी जो हुए, झेले राज अकाज ||1||
दीखते हैं मुझे दृश्य सब मनोहारी
कुसुम कलिकाओं से सुगंध तेरी आती है
कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है
देखूं शशि छबि या निहारूं अंशु सूर्य के -
रंग छटा उसमे तेरी ही दिखाती है |
कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर'
तेरे रूप-धूप का सुयश फैलाती है ||
कुसुम कलिकाओं से सुगंध तेरी आती है
कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है
देखूं शशि छबि या निहारूं अंशु सूर्य के -
रंग छटा उसमे तेरी ही दिखाती है |
कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर'
तेरे रूप-धूप का सुयश फैलाती है ||
गुरु वशिष्ठ की मंत्रणा, सह सुमंत बेकार |
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया दरबार ||2||
क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष |
सुन्दरता पागल करे, मन-मानव मदहोश ||3||
अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |
क्रोध-प्यार बड़-बोल से, जाय जिंदगी हार ||4||
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया दरबार ||2||
क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष |
सुन्दरता पागल करे, मन-मानव मदहोश ||3||
अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |
क्रोध-प्यार बड़-बोल से, जाय जिंदगी हार ||4||
झूले मुग्धा नायिका, राजा मारे पेंग |
वेणी लागे वारुणी, दिखा रही वो ठेंग ||5||
राज-वाटिका में रमे, चार पहर से आय |
तीन-मास के पुत्र को, धाय रही बहलाय ||6||
नारायण-नारायणा, नारद निधड़क नाद |
अवधपुरी के गगन पर, स्वर्गलोक संवाद ||7||
वीणा से माला गिरी, इंदुमती पर आय |
ज्योत्सना वह अप्सरा, जान हकीकत जाय ||8||
एक पाप का त्रास वो, यहाँ रही थी भोग |
स्वर्ग-लोक नारी गई, अज को परम वियोग ||9||
माँ का पावन रूप भी, उसे सका ना रोक |
तीन मास के लाल को, छोड़ गई इह-लोक ||10||
विरह वियोगी जा महल, कदम उठाया गूढ़ |
भूल पुत्र को कर लिया, आत्मघात वह मूढ़ ||11|
कुंडली
(1)
(1)
उदासीनता की तरफ, बढ़ते जाते पैर ।
रोको रविकर रोक लो, जीवन से क्या बैर ।
जीवन से क्या बैर, व्यर्थ ही जीवन त्यागा ।
किया पुत्र को गैर, करे क्या पुत्र अभागा ?
दर्द हार गम जीत, व्यथा छल आंसू हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो जग छोड़ उदासी ।।
जहाँ कहीं देना पड़े, करे व्यर्थ तकरार ||
(2)
प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
(2)
मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत न हार ।
कायर भागे कर्म से, होय कहाँ उद्धार ?
होय कहाँ उद्धार, चलो पर-हित कुछ साधें ।
बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें ।
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से ।
जियो लोक हित मित्र, मिले न कुछ मरने से ।
माता की ममता छली, करता पिता अनाथ |
रोय-रोय शिशु हारता, पटक-पटक के माथ ||12||
पूरी कथा का लिंक -
कथा बह रही न्यारी-प्यारी,
ReplyDeleteयह केवल ईश्वर बलिहारी !
अज इंदुमति के प्रेम का सरस वर्णन कविता एक धार बह रही है । अति सुंदर । दशरथ माता पिता के सुख से विहीन हो गये हाय !
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteमिलिए सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष से रामगढ में
जहाँ रचा महाकवि कालिदास ने महाकाव्य मेघदूत।
बेहतरीन रचना
ReplyDeleteअति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |
ReplyDeleteक्रोध-प्यार बडबोल से, जाय जिंदगी हार ||4|
भाव प्रवण करता मार्मिक प्रसंग .
बहुत खूबसूरत रचना ...
ReplyDeleteबढ़िया कथा |
ReplyDeleteमहोदय !!
अपने बाबा से पूछा |
अध्यापक गन से भी पूछा |
किसी को पता नहीं की राम जी कोई बहिन भी थी |
आभार |
पढ़ रहा हूँ |