सर्ग-3
भाग-2
भगिनी शांता
सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
चिन्तित अवध
शान्ता तो खुशहाल है, दशरथ चिन्तित खूब |
कौशल्या परजा सकल, गम-सागर में डूब ||
हद से होता पार जब, दोनों का अवसाद |
अंगदेश को चल पड़ें, कभी कहीं अपवाद ||
चार वर्ष तक न हुई, कोई जब संतान |
दशरथ तो चिंतित रहें, कौशल्या उकतान ||
हो रानी की आत्मा, इकदम से बेचैन |
ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |
ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |
हक्का-बक्का रह गए, सुनकर के महिपाल |
कौशल्या अनुनय करे, उसका हृदय विशाल ||
संग में मैं उसके रहूँ, अपनी बहना मान |
कभी शिकायत न करूँ, रक्खू हरदम ध्यान ||
बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |
पालन मन से जो करे, पावे मान विशेष ||
यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |
हो कैसे युवराज पर, विषय बड़ा गंभीर ||
अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |
कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||
अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |
अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||
संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |
प्रत्त्युत्तर की देखती, उत्सुक परजा राह ||
पञ्च-नदी बहती जहाँ, प्यारा कैकय देश |
अपनी रूचि से भेजते, दशरथ खुद सन्देश ||
कैकय के महराज को, मिला एक वरदान |
खग की भाषा जानते, अश्वपती विद्वान ||
उनकी कन्या रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |
सात भाइयों में पली, पलकों रखी सहेज ||
माता का सुख न मिला, माता थी वाचाल |
कैकय से बाहर गई, बीते बाइस साल ||
घटना है इक रोज की, उपवन में महराज |
चीं-चीं सुनके खुब हँसे, महरानी नाराज ||
भेद खोलने की सजा, राजा के थे प्राण |
इसीलिए रानी करे, कैकय से प्रयाण ||
भूपति खोलें भेद गर, प्राण जाएँ तत्काल |
रानी जिद छोड़ी नहीं, की थी बहुत बवाल ||
संबंधों की श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |
शर्त सहित सन्देश पर, ले जाता यह दूत ||
मेरी पुत्री का बने, बेटा यदि युवराज |
स्वागत है बारात का, सिद्ध जानिये काज ||
कौशल्या कहने लगी, कोई न अवरोध |
कैकेयी रानी बने, मेरा नहीं विरोध ||
रानी बनकर आ गई, साथ मंथरा धाय |
जिसके कटु व्यवहार से, महल रहा उकताय ||
चार साल बीते मगर, हुई न मनसा पूर |
सुमति सुमित्रा आ गई, हुए भूप मजबूर ||
कौशल्या की गोद के, सूख गए जो फूल |
लंकापति रहता उधर, मस्त ख़ुशी में झूल ||
सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
करे दुश्मनी दुष्टता, दशरथ के भी संग ||
युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |
सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||
कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |
करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||
घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |
दो वर पाई गाँठ में, बाढ़ा मान विशेष ||
शांता बिन ये शादियाँ, हो जाती नाकाम |
चौथेपन में अवधपति, केश सफ़ेद तमाम ||
चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ी मुखड़े बीच |
पूर्वकाल के पुण्य-तप, राखें आँखें मीच ||
ज्ञानवर्धक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
ReplyDeleteकुँवर जी,
पौराणिकता का आधुनिक चितेरे को मेरा अभिवादन स्वीकार हो ,अति उत्तम वर्णन ,सराहनीय प्रयास ,धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteअच्छी जा रही है काव्य-कथा ।
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