सर्ग-3
भाग-3
वन-विहार
माता संग गुरुकुल गई, बाढ़े भ्रात विछोह |
दक्षिण की सुन्दर छटा, लेती थी मन मोह ||
गंगा के दक्षिण घने, सौ योजन तक झाड़ |
श्वेत बाघ मिलते उधर, झरने और पहाड़ ||
मन की चंचलता विकट, इच्छा मारे जोर |
रूपा के संग चल पड़ी, रथ लेकर अति भोर ||
पंखो को फैला उडी, मिला खुला आकाश |
खुद से करने चल पड़ी, खुद की खुदी तलाश ||
वटुक-परम पीछे लगा, सबकी नजर बचाय |
तीर धनुष अपना लिए, छुपकर साथे जाय ||
आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।
बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।
अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।
सखियों के उपहार, खोलकर अगर निहारे ।
पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।
नई ऊर्जा पाय, करे फिर आपाधापी ।।
कौला लेकर औषधी, रही भोर से खोज|
जल्दी ही हल्ला हुआ, लगी खोजने फौज ||
राजा-रानी ढूंढते, रमण होय हलकान |
बुद्धिहीन सा बदलता, अपने दिए बयान |
अपने-अपने अश्व ले, चारो दिश सब जाय |
दौड़ा दक्षिण को रमण, घोडा जोर भगाय ||
काका झटपट भागता, बड़े लक्ष्य की ओर |
घोडा चाबुक खाय के, लखे विचरते ढोर ||
काका झटपट भागता, बड़े लक्ष्य की ओर |
घोडा चाबुक खाय के, लखे विचरते ढोर ||
गुरुकुल पीछे छूटता, आई घटना याद |
बाघ देखने की कही, शांता जब बकवाद ||
पहियों के ताजे निशाँ, पड़े भूमि पर देख |
माथे पर गहरी हुईं, चिंता की आरेख ||
आगे जाकर देखता, झरना बहता जोर |
बन्द रास्ता दीखता, दिखे विचरते ढोर ||
रथ आगे दीखे नहीं, कैसे गया बिलाय |
अनहोनी की सोच के, रहा अँधेरा छाय ||
उतरा घोड़े से मिला, अंगवस्त्र इक श्वेत |
आगे बढ़ने पर दिखा, रथ फिर अश्व समेत ||
व्याकुलता ज्यादा बढ़ी, झटपट झाड़ी फांद |
दिखी सामने छुपी सी, एक बाघ की मांद ||
जी धकधक करने लगा, गहे हाथ तलवार |
एक एक कर आ रहे, मन में बुरे विचार ||
हिम्मत कर आगे बढ़ा, आया शर सर्राय |
देखा अचरज से उधर, खड़ा बटुक निअराय ||
बोला तेजी से रमण, परम बटुक दे ध्यान |
काका तेरा है इधर, ले लेगा क्या जान ||
सुनकर के आवाज यह, दोनों बाला धाय |
काका को परनाम है, बोली बाहर आय ||
बैठी थी वे मांद में, नहीं बाघ का खौफ |
कहाँ हकीकत थी पता, करती दोनों ओफ ||
काका जब फटकारते, नैना आये नीर |
गुर्राहट सुन काँपता, अबला देह सरीर ||
झटपट ताने धनुष को, चाचा और भतीज |
बाघ किन्तु दीखा नहीं, रहे हाथ सब मींज ||
जल्दी से चारो चले, अपने रथ की ओर |
चौकन्ने थे कान सब, बिना किये कुछ शोर ||
शांता रूपा जा छुपी, रथ के बीचो-बीच |
खुली जगह पर रथ तुरग, घोडा लाया खींच ||
गुरुकुल में फैली खबर, बोला छोटा शिष्य |
रथ तेजी से उत गया, आँखों देखा दृश्य ||
युद्ध-शास्त्र के चार ठो, चले सोम के मित्र |
पहला मौका पाय के, हरकत करें विचित्र ||
बग्घी की उस लीक पर, पैदल बढ़ते जाँय |
अस्त्रों को हैं भांजते, चलते शोर मचाय ||
उधर बाघ दीखे नहीं, होय गर्जना घोर |
व्याकुलता से भागते, वहाँ विचरते ढोर ||
घोडा अकुलाये वहाँ, हिनहिनाय मजबूर |
जैसे आता जा रहा, कोई हिंसक क्रूर ||
गिर-कंदर में गूंजती, रह रह कर आवाज |
धरती पर मानो गिरे, महाभयंकर गाज ||
रमण रहा घबराय पर, हिम्मत भरा दिखाय |
उलटे रास्ते की तरफ, रथ को गया बढ़ाय ||
घोडा भगा तीव्रतम, रह रह झटके खाय |
जैसे पीछे हो लगा, इक कोई अतिकाय ||
सचमुच इक अतिकाय था, आगे घेरा डाल |
घोडा ठिठका जोर से, खड़ा सामने काल ||
रमण बोलते बटुक से, बेटा रथ को हाँक |
कन्याओं से फिर कहे, मत बाहर को झाँक ||
शांता रूपा देखती, परदे की थी ओट |
आठ हाथ की देह को, खुद से रही नखोट ||
घिघ्घी दोनों की बंधीं, कसके दालिम -पूत |
तेजी से रथ हांकता, पहली बार अभूत ||
याद रमण को आ गया, दालिम का एहसान |
तीन जान खातिर अड़ा, वह अदना इंसान ||
ध्यान हटाने को रमण, मारा उसको तीर |
काया पकडे हाथ से, देती नख से चीर ||
बोली मैं हूँ ताड़का, मानव खाना काम |
पिद्दी सा तू क्या लड़े, पल में काम तमाम ||
देखा उसको रमण जब, महिला का था रूप |
साफ़-साफ़ अब दिख रही, भद्दी विकट कुरूप ||
घोड़े के संग वीर तब, वापस भागा जान |
अपने पीछे ले लगा, योद्धा बड़ा सयान ||
लम्बे लम्बे ताड़का, दौड़ी रख के पैर |
अट्ठाहास रह रह करे, मानव की ना खैर ||
अन्धकार छाया हुवा, गया नदी में कूद |
रमण मूल पानी बहा, घोड़ा खाई सूद ||
परम बटुक रथ हाँक के, आया बारह कोस |
सोम-मित्र देखे सकल, तब आया था होश ||
जल्दी से रथ में चढो, तनिक करो न देर |
राक्षस इक पीछे पड़ा, होवे ना अंधेर ||
शांता रूपा बोलती, देखी जब वे सोम |
लाख लाख आभार है, ताके ऊपर व्योम ||
काका प्यारे झूझते, देते अपनी जान |
हमें बचाने के लिए, हुवे वहाँ कुर्बान ||
गुरुकुल पहुंची शांता, रूपा रमण समेत |
भय से थर थर कांपती, देखा जिन्दा प्रेत |
रूपा के सौन्दर्य को, ताके सारे मित्र |
सोम ताकता मित्र को, स्थिति बड़ी विचित्र ||
गुरुकुल से उस रात ही, गुरु गए पहुँचाय |
काका की करनी कहें, रहे तनिक सकुचाय ||
यक्ष वंश की ताड़का, उसके पिता सुकेतु |
कठिन तपस्या से मिली, किया पुत्र के हेतु ||
असुर राज से व्याह दी, थी ताकत में चूर |
दैत्य सुमाली से हुवे, संतानें सब क्रूर ||
पुत्री केकेसी हुई, रावण केरी माय ||
मारीच सुबाहु पुत्र दो, पूरा जग घबराय ||
वही ताड़का थी दिखी, सौजा रही सुनाय |
पुत्र रमण की मृत्यु पर, रही खूब इतराय ||
शोक करें किस हेतु हम, हमें गर्व अनुभूत |
रूपा शांता को बचा, लगे देव का दूत ||
मेरा प्यारा बटुक भी, छोटा किन्तु महान |
अच्छी संगत पाय के, बनता बड़ा सयान ||
दालिम से सौजा कहे, मत कर बेटा शोक |
इसी कार्य के वास्ते, आया था इहलोक ||
रो रो कर के शांता, रही स्वयं को कोस |
दुर्घटना में दिख रहा, सारा उसका दोष ||
पुत्र रमण की मृत्यु पर, रही खूब इतराय ||
शोक करें किस हेतु हम, हमें गर्व अनुभूत |
रूपा शांता को बचा, लगे देव का दूत ||
मेरा प्यारा बटुक भी, छोटा किन्तु महान |
अच्छी संगत पाय के, बनता बड़ा सयान ||
दालिम से सौजा कहे, मत कर बेटा शोक |
इसी कार्य के वास्ते, आया था इहलोक ||
रो रो कर के शांता, रही स्वयं को कोस |
दुर्घटना में दिख रहा, सारा उसका दोष ||
रोते धोते बीतते, दुःख के हफ्ते चार |
घायल काका आ गया, चमत्कार आभार ||
कूदा पानी में जहाँ, था बहाव अति तेज |
ढीली काया कर दिया, कर मजबूत करेज ||
पानी में बहता गया, पूरी काली रात |
बहुत दूर था आ गया, पीछे छोड़ प्रपात ||
भूला था मैं रास्ता, रहा भटकता देख |
इक सन्यासी थे मिले, माथे चन्दन लेख ||
दर्शन करने जा रहे, श्रींगेश्वर महदेव |
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव ||
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव ||
हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चढ़ने की सतत, चाहे दुर्गम राह |
चाहे दुर्गम राह, चाह से मिले सफलता |
करो नहीं परवाह, दिया तूफां में जलता |
चढ़ते रहो पहाड़, सदा जय माँ जी कहिये |
कोशिश चढ़ने की सतत, चाहे दुर्गम राह |
चाहे दुर्गम राह, चाह से मिले सफलता |
करो नहीं परवाह, दिया तूफां में जलता |
चढ़ते रहो पहाड़, सदा जय माँ जी कहिये |
दीजै झंडे गाड़, डटे हिम्मत से रहिये ||
प्यार बूढ़ दिल मोंगरा, अमलताश की आग ।
लड़की को कर के विदा, चला बुझाय चराग ।।
लड़की को कर के विदा, चला बुझाय चराग ।।
सपना अपना चुन लिया, करे नहीं पर यत्न ।
बिन प्रयत्न कैसे मिले, कोई अद्भुत रत्न ।
ReplyDeleteअपने-अपने अश्व ले, चारो दिश सब जाय |
दौड़ा दक्षिण को रमण, घोडा जोर भगाय ||यहाँ चारों दिश सब जाय ....काका जब फटकारते, नैना आये नीर |
गुर्राहट सुन काँपता, अबला देह सरीर ||अबला देह शरीर ....
जल्दी से चारो चले, अपने रथ की ओर |
चौकन्ने थे कान सब, बिना किये कुछ शोर || जल्दी से चारों चले .....
शांता रूपा जा छुपी, रथ के बीचो-बीच |
खुली जगह पर रथ तुरग, घोडा लाया खींच ||..........रथ के बीचों -बीच ....
दर्शन करने जा रहे, श्रींगेश्वर महदेव |
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव || श्रृंगएश्वर ?......बढ़िया काव्यात्मक कथांश .....प्रस्तुति .
.. .कृपया यहाँ भी पधारें -
सोमवार, 27 अगस्त 2012
अतिशय रीढ़ वक्रता (Scoliosis) का भी समाधान है काइरोप्रेक्टिक चिकित्सा प्रणाली में
http://veerubhai1947.blogspot.com/
.बहुत अच्छा लग रहा है एक आपकी ये प्रस्तुति और एक शिखा जी की नूतन रामायण को पढना .बहुत सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.तुम मुझको क्या दे पाओगे?
ReplyDeleteहिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
ReplyDeleteकोशिश चढ़ने की सतत, चाहे दुर्गम राह |
चाहे दुर्गम राह, चाह से मिले सफलता |
करो नहीं परवाह, दिया तूफां में जलता |
चढ़ते रहो पहाड़, सदा जय माँ जी कहिये |
दीजै झंडे गाड़, डटे हिम्मत से रहिये ||
किसी ने ठीक कहा है हिम्मते मर्दा मद्दते खुदा ,बहुत सुंदर प्रेरणास्पद प्रस्तुति ,सधन्यवाद
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति .. आभार
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteशान्ता जी का जिक्र तुलसी या वाल्मी की रामायण में क्यूं नही आता इनकी कथा तो अदभुत है ।
ReplyDeleteआपका आभार ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति। मरे पोस्ट पर आपका सादर अभिनंदन है।
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