सर्ग-4 :
भार्या शांता
भाग -1
कौशिकी-कोसी
सृन्गेश्वर महादेव
भगिनी विश्वामित्र की, सत्यवती था नाम |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||
दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||
वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||
सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||
उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||
असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब आवे क्रोध ||
अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||
धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||
इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्डक हैं यही, विनती करते लोग ||
उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||
इन्ही विविन्डक ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||
सृंगी ऋषि, कुल्लू घाटी
ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||
जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव ||
लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||
अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक ||
हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||
छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||
मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||
दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||
वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||
सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||
उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||
असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब आवे क्रोध ||
अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||
धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||
इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्डक हैं यही, विनती करते लोग ||
उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||
निश्छल और विनम्र है, मंद-मंद मुस्कान |
मितभाषी मृदु-छंद है, उनका हर व्याख्यान ||
अभिव्यक्ति रोचक लगे, जागे मन विश्वास |
बाल-वृद्ध-युवजन जुड़े, आस छुवे आकाश ||
दूरदर्शिता का उन्हें, है अच्छा अभ्यास |
जोखिम से डरते नहीं, नहीं अन्धविश्वास ||
इन्ही विविन्डक ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||
सृंगी ऋषि, कुल्लू घाटी
ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||
जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव ||
लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||
अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक ||
हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||
छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||
मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
वैज्ञानिक अति श्रेष्ठ ये, मिला पिता से बोध ||
गुफा में पानी -नाहन
नाहन के ही पास है, गुफा एक सिरमौर |
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||
सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी के हाथों हुआ, बढ़ता जनमन चोप ||
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||
सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी के हाथों हुआ, बढ़ता जनमन चोप ||
सात पोखरों की धरा, सातोखर है नाम |
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||
अंगदेश का क्षेत्र यह, दुनिया भर में नाम |
आठ वर्ष के बाद फिर, शांता करे प्रणाम ||
धुंधली धुंधली सी दिखे, बचपन की तस्वीर ।
रूपा की शैतानियाँ, शीश-सृंग की पीर ।।
शांता और रिस्य-सृंग
शांता थी गमगीन, खोकर काका को भली |
मौका मिला हसीन, लौटी चेहरे पर हंसी ||
सबने की तारीफ़, वीर रमण के दाँव की |
सहा बड़ी तकलीफ, मगर बचाई जान सब ||
राजा रानी आय, हालचाल लेकर गए |
करके सफल उपाय, वैद्य ठीक करते उसे ||
हुआ रमण का व्याह, नई नवेली दुल्हनी |
पूरी होती चाह, महल एक सुन्दर मिला ||
नीति-नियम से युक्त, जिये जिन्दगी धीर धर |
हंसे ठठा उन्मुक्त, परहितकारी कर्म शुभ ||
हंसे ठठा उन्मुक्त, परहितकारी कर्म शुभ ||
रहते दोनों भाय, माता बच्चे साथ में |
खुशियाँ पूरी छाय, पाले जग की परंपरा ||
मनसा रहा बनाय, रमण एक सप्ताह से |
सृन्गेश्वर को जाय, खोजे रहबर साधु को ||
शांता जानी बात, रूपा संग तैयार हो |
माँ को नहीं सुहात, कौला सौजा भी चलीं ||
दो रथ में सब बैठ, घोड़े भी संग में चले |
रही शांता ऐंठ, मेला पूरा जो लगा ||
रही सोम को देख, चंपा बेटे से मिलीं |
मूंछों की आरेख, बेटे की लागे भली ||
बेटा भी तैयार, महादेव के दर्श हित |
होता अश्व सवार, धीरे से निकले सभी ||
नौकर-चाकर भेज, आगे आगे जा रहे |
इंतजाम में तेज, सभी जरूरत पूरते ||
पहुंचे संध्या काल, सृन्गेश्वर को नमन कर |
डेरा देते डाल, अगले दिन दर्शन करें ||
सुबह-सुबह अस्नान, सप्त-पोखरों में करें |
पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||
कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सन्यासी को देखते, लगा इन्हें हुस्कारने ||
कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सन्यासी को देखते, लगा इन्हें हुस्कारने ||
रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करे |
हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||
तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |
अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||
गई शांता झेंप, चितवन चंचल फिर चढ़ी |
मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||
ऋषिवर को परनाम, रूपा बोली हृदय से |
शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की ||
हाथ जोड़कर ठाढ़, हुई शांता फिर मगन |
वैचारिक यह बाढ़, वापस भागी शिविर में ||
पूजा लम्बी होय, रानी चंपा की इधर |
शिव को रही भिगोय, दुग्ध चढ़ाये विल्व पत्र ||
रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |
था दुपहर में भोज, विविन्डक आये शिविर ||
गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |
मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||
बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |
बैठा साथे सोम, विविन्डक ऋषिराज के ||
संध्या सारे जाँय, कोसी की पूजा करें |
शांता रही घुमाय, रूपा को ले साथ में ||
अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |
सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं ||
तरह तरह के प्रेम हैं, अपना अपना राग |
मन का कोमल भाव है, जैसे जाये जाग |
जैसे जाये जाग, वस्तु वस्तुता नदारद |
पर बाकी सहभाग, पार कर जाए सरहद |
जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलौकिक पावें |
लुटा रहे अविराम, लूट जैसे मन भावे |
मन का कोमल भाव है, जैसे जाये जाग |
जैसे जाये जाग, वस्तु वस्तुता नदारद |
पर बाकी सहभाग, पार कर जाए सरहद |
जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलौकिक पावें |
लुटा रहे अविराम, लूट जैसे मन भावे |
लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें ||
करके देख विचार, दाढ़ी लगती है बुरी ||
खट-पट करे खिडांव, देख सामने हैं खड़े |
छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||
शांता शान्ति छोड़, असमंजस में जा पड़ी |
जिभ्या चुप्पी तोड़, करती है प्रणाम फिर ||
मैं सृंगी हूँ जान, ऋषी राज के पुत्र को |
करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||
मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |
सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||
पिता बड़े विद्वान, मिले विरासत में मुझे |
उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी है बड़ी ||
कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रात दिन |
पूरे कौन सवाल, दुनिया के फिर करेगा ||
बदले दृष्टिकोण, रिस्य सृंग का प्रवचन |
बाहें रही मरोड़, हाथ जोड़ प्रणाम कर ||
लौटी रूपा देख, बढे सृंग आश्रम गए |
अपनी जीवन रेख, शांता देखे ध्यान से ||
लौट शिविर में आय, अपने बिस्तर पर पड़ी |
कर कोशिश विसराय, सृंगी मुख भूले नहीं ||
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteलखनऊ सम्मलेन में इनाम पाने के लिए बधाई .रविकर भाई कितना काम कर लेतें हैं आप लगन से अथक रूप ,शास्त्री कृत चित्रावली में आपको ,इनाम लेते देखा ,सम्मलेन में हमारी अप्रत्यक्ष शिरकत कर वादी आपने शास्त्री जी ने ,बधाई पुनश्च :.,यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteबृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
कई मर्तबा व्यक्ति जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिलतें हैं .अब कोई भले किसी अखबार का सम्पादक हो उसके लिए यह ज़रूरी नहीं है वह भाषा का सही ज्ञाता भी हो हर शब्द की ध्वनी और संस्कार से वाकिफ हो ही .लखनऊ सम्मलेन में एक अखबार से लम्पट शब्द प्रयोग में यही गडबडी हुई है .
हो सकता है अखबार कहना यह चाहता हों ,ब्लोगर छपास लोलुप ,छपास के लिए उतावले रहतें हैं बिना विषय की गहराई में जाए छाप देतें हैं पोस्ट .
बेशक लम्पट शब्द इच्छा और लालसा के रूप में कभी प्रयोग होता था अब इसका अर्थ रूढ़ हो चुका है :
"कामुकता में जो बारहा डुबकी लगाता है वह लम्पट कहलाता है "
अखबार के उस लिखाड़ी को क्षमा इसलिए किया जा सकता है ,उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिला ,पटरी से उतरा हुआ शब्द मिला .जब सम्पादक बंधू को इस शब्द का मतलब समझ आया होगा वह भी खुश नहीं हुए होंगें .
http://veerubhai1947.blogspot.com/
ram ram bhai
बढ़िया कथांश ,सांगीतिकता और विवरण चित्रानाकन से भरपूर :.,यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteबृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
लम्पटता के मानी क्या हैं ?
कई मर्तबा व्यक्ति जो कहना चाहता है वह नहीं कह पाता उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिलतें हैं .अब कोई भले किसी अखबार का सम्पादक हो उसके लिए यह ज़रूरी नहीं है वह भाषा का सही ज्ञाता भी हो हर शब्द की ध्वनी और संस्कार से वाकिफ हो ही .लखनऊ सम्मलेन में एक अखबार से लम्पट शब्द प्रयोग में यही गडबडी हुई है .
हो सकता है अखबार कहना यह चाहता हों ,ब्लोगर छपास लोलुप ,छपास के लिए उतावले रहतें हैं बिना विषय की गहराई में जाए छाप देतें हैं पोस्ट .
बेशक लम्पट शब्द इच्छा और लालसा के रूप में कभी प्रयोग होता था अब इसका अर्थ रूढ़ हो चुका है :
"कामुकता में जो बारहा डुबकी लगाता है वह लम्पट कहलाता है "
अखबार के उस लिखाड़ी को क्षमा इसलिए किया जा सकता है ,उसे उपयुक्त शब्द नहीं मिला ,पटरी से उतरा हुआ शब्द मिला .जब सम्पादक बंधू को इस शब्द का मतलब समझ आया होगा वह भी खुश नहीं हुए होंगें .
http://veerubhai1947.blogspot.com/
ram ram bhai
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ... आभार
ReplyDeleteपौराणिक और एतिहासिक तथ्यों का सुंदर चित्रण ,खोज परक वर्णन के लिए बहुत बहुत साधुवाद ।
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