दोहे -2
विद्वानों के लिए वे, संस्थान दें खोल ।
करते बौद्धिक मस्तियाँ, बंद ढोल की पोल ।।
सत्ता से भत्ता मिले, छत्ता विकट सँभाल ।
ओवर-लोडेड युवा ही, काटे नहीं बवाल ।।
तुकबंदी-1
एकलव्य ने दिया अंगूठा, खुद से हुआ अपंग ।
द्रोण सरीखे गुरू हमेशा हैं सत्ता के संग ।
गिरगिटान सा रहे बदलते, शासक हरदम रंग ।
गाँव-राँव की विकट परिस्थिति, शिक्षक चिन्तक दंग ।
लैप-टॉप की टॉफी से कर रहे तपस्या भंग ।
अधकचरी यह चुकी व्यवस्था, करते शोषक तंग ।
घूम रही आधी आबादी, अब भी नंग धडंग ।
मानवता को लड़नी होगी फिर से तगड़ी जंग ।।
चन्द्रगुप्त देने को आतुर अपना अंग-प्रत्यंग ।
चाह एक चाणक्य बना ले, मुख्य धार का अंग ।
द्रोण सरीखे गुरू हमेशा हैं सत्ता के संग ।
गिरगिटान सा रहे बदलते, शासक हरदम रंग ।
गाँव-राँव की विकट परिस्थिति, शिक्षक चिन्तक दंग ।
लैप-टॉप की टॉफी से कर रहे तपस्या भंग ।
अधकचरी यह चुकी व्यवस्था, करते शोषक तंग ।
घूम रही आधी आबादी, अब भी नंग धडंग ।
मानवता को लड़नी होगी फिर से तगड़ी जंग ।।
चन्द्रगुप्त देने को आतुर अपना अंग-प्रत्यंग ।
चाह एक चाणक्य बना ले, मुख्य धार का अंग ।
कुण्डली
रमता जोगी ही करे, अब समता की बात |
सत्ता-स्वामी जानते, खुराफात संताप |
खुराफात संताप, अंगूठा दिखा रहे अब |
एकलव्य को नाप, द्रोण कहकहा रहे जब |
सत्ता लेती साध, साध रविकर न पाता |
पढ़ जाए इक आध, नहीं अब इन्हें सुहाता ||
जार जार शुभ ज्ञान है, शिक्षा बिक बाजार |
ऊंची कोठी शान है, ऊंचा गुरु आगार |
ऊंचा गुरु आगार, उदारीकरण दिखाए |
जब विदेश में नित्य, निवेशित ज्ञान कराये |
मुद्रा से है ज्ञान, ज्ञान से बड़ी चाकरी |
रिश्तों का अवसान, बुरा परिणाम आखरी ||
प्रश्न-काल को टाल दें, रविकर गुरु-घंटाल |
रट्टू तोते भी फंसे, पिंजरा अंतरजाल |
पिंजरा अंतरजाल, सतत सर्फिंग उपयोगी |
उभय पक्ष जब मस्त, भला कक्षा क्यूँ होगी ?
इंटरनेट पर चैट, तेज कर भेड़-चाल को |
जश्न-काल अल-मस्त, ख़तम कर प्रश्न-काल को ||
सत्ता-स्वामी जानते, खुराफात संताप |
खुराफात संताप, अंगूठा दिखा रहे अब |
एकलव्य को नाप, द्रोण कहकहा रहे जब |
सत्ता लेती साध, साध रविकर न पाता |
पढ़ जाए इक आध, नहीं अब इन्हें सुहाता ||
माता ने बंधवा दिया, इक गंडा-ताबीज |
डंडे के आगे मगर, हुई फेल तदबीज |
हुई फेल तदबीज, लुकाये गुरु के डंडे |
पड़े पीठ पर रोज, व्यर्थ सारे हतकंडे |
रविकर जाए चेत, पाठ नित पढ़ कर आता |
अक्षरश:दे सुना, याद कर भारति माता ||
डंडे के आगे मगर, हुई फेल तदबीज |
हुई फेल तदबीज, लुकाये गुरु के डंडे |
पड़े पीठ पर रोज, व्यर्थ सारे हतकंडे |
रविकर जाए चेत, पाठ नित पढ़ कर आता |
अक्षरश:दे सुना, याद कर भारति माता ||
जार जार शुभ ज्ञान है, शिक्षा बिक बाजार |
ऊंची कोठी शान है, ऊंचा गुरु आगार |
ऊंचा गुरु आगार, उदारीकरण दिखाए |
जब विदेश में नित्य, निवेशित ज्ञान कराये |
मुद्रा से है ज्ञान, ज्ञान से बड़ी चाकरी |
रिश्तों का अवसान, बुरा परिणाम आखरी ||
प्रश्न-काल को टाल दें, रविकर गुरु-घंटाल |
रट्टू तोते भी फंसे, पिंजरा अंतरजाल |
पिंजरा अंतरजाल, सतत सर्फिंग उपयोगी |
उभय पक्ष जब मस्त, भला कक्षा क्यूँ होगी ?
इंटरनेट पर चैट, तेज कर भेड़-चाल को |
जश्न-काल अल-मस्त, ख़तम कर प्रश्न-काल को ||
इतनी सुन्दर कविता के लिये चार पंतियां समर्पित हैं।
ReplyDeleteभाषा सरल,सहज यह कविता,
भावाव्यक्ति है अति सुन्दर।
यह सच है सबके यौवन में,
ऐसी कविता सबके अन्दर।
कब लिख जाती कैसे लिखती,
हमें न मालुम होता अकसर।
ज़बरदस्त है सर!
ReplyDeleteशिक्षक दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ!
सादर
वाह! क्या बात है!!
ReplyDeleteकृपया इसे भी देखें-
जमाने के नख़रे उठाया करो!