02 October, 2012

भगवान् राम की सहोदरा (बहन) : भगवती शांता परम-21

सर्ग-4
भाग-9
नाव-यात्रा 
हरी भरी यह उर्वरा, गंगा का वरदान |
प्रभु की भक्ती से भरा, है चौरस मैदान ||

गंगा जी में मिल रहीं, छोटी नदियाँ आय |
यमुना आई दूर से, देख गंग हरषाय ||

सरस्वती भी हैं यहाँ, त्रिवेणी का धाम |
सुन्दर होती आरती, मुग्ध कर रही शाम ||

संगम पहली मर्तवा, देख प्रफुल्लित होय |
करती संध्या वंदना, अपना बदन भिगोय ||

रात यहीं विश्राम कर, सुबह बढ़ाई नाव |
काशी में दर्शन करे, तन-मन भक्ति-भाव ||

बाढ़ी गंगा जी गजब, थी अथाह जलरास |
नाव चलाने में मगर, बड़े कुशल सब  दास ||  

धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |
गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||

आश्विन में बूंदें पड़े, रात्री बाढ़े शीत |
नाविक आगे बढ़ रहे, गाते मीठे गीत ||

ना जाने कब नींद ने, लिया उन्हें भी घेर |
बालू भित्ती में फंसे,  होने लगी कुबेर ||

दोपहर भी बीती वहां, लागे नाहीं दांव |
हिकमत करके हारते, कैसे निकले नाँव ||

टकराने से खुल गया, महत्वपूर्ण इक जोड़ |
पानी अन्दर घुस रहा, उलचें बाहें मोड़ ||

 
छेद नाव में होने से भी, कभी नहीं नाविक घबराया    । 
जल-जीवन में गहरे गोते, सदा सफलता सहित लगाया ।
इतना लम्बा अनुभव अपना, नाव किनारे पर आएगी -
इन हाथों पर बड़ा भरोसा, बाधाओं को पार कराया ।।

पीछे से आती दिखी, एक बड़ी सी नाव |
मदद मांगते मित्रवर, तट पर नाव कराव ||

पूछतांछ करते पता, एक कोस पर गाँव |
यथाशीघ्र जाओ वहाँ, कारीगर ले आव ||

इक नाविक के संग में, परम बटुक अगवान |
शांता देती एक पण, लाने को सामान ||

दोनों तेजी से गए, गई घरी इक बीत |
दो ही आते दीखते, बदल गई क्या रीत ||

मानव मानव की करे, मदद सदा हरसाय | 
मीठी बोली पर सखे, माटी मोल बिकाय ||

चले मरम्मत बिन नहीं, आगे मेरी नाव |
शांता बोली नाविकों,  तम्बू चलो लगाव ||

आगंतुक को देखकर, शांता है हैरान |
परम बटुक उनमें नहीं, लगे निकलने प्रान ||

नाविक बोला माँ सुनों, भाई बड़ा महान |
महारुजा से ले बचा, तीन जनों की जान ||

घोर संक्रमण से ग्रसित, हुवे गाँव के लोग |
बदन तपे खुब ज्वर चढ़े, जाने कैसा रोग ||

कारीगर चरणन पड़ा, बचा लेव मम ग्राम |
शांता देकर सांत्वना, बोले भज हरिनाम ||

चार घरी में कर दिया, पूर्ण मरम्मत काम |
हाथ जोड़कर बोलता, रात करें विश्राम ||

अगले दिन प्रात: वहाँ, तट पर आये लोग |
गन्ना गुड़ चूड़ा चढ़ा, चढ़ा रहे सब भोग ||

साध्वी शांता के छुवें, आदर से सब पाँव |

एक वृद्ध से जब सुनी, गाँव सुपरिचित नाँव ||



क्या दालिम को जानते, वही रमण के भाय |

अंगदेश जाकर बसे, महाराज ले जाय ||



जय हो देवी शांता, करय लगे जयकार |

दालिम का ही पूत है, करे वहाँ उपचार ||

और दुपहरी में दिखा, बटुक तनिक घबरात |
शांता को खुश देखकर, फिर थोडा मुस्कात ||

पीड़ा सहकर भी करो, दूजे का कल्याण |
यही चिकित्सक कर्म है, मत जाने दो प्राण ||

बटुक परम ज्यों जानता, यह बाबा का ग्राम |

बड़े बुजुर्गों को करे, छूकर पैर प्रणाम ||

औषधि सबको दी बता, दिया सफाई सीख |
मुखिया को समझा दिया, ग्राम आश्वस्त दीख ||

विदा विदाई हो गई, चली दुबारा नाव |
पाल ठीक से बाँध के, थोड़ी गति बढ़ाव ||

इक पण तुमको था दिया, कहाँ गए तुम भूल |
रमण बिचारा कर रहा, अपनी भूल कुबूल ||

वापस पण करने लगा, शांता दी मुसकाय |
भाई रख ले पास में,  काम समय पर आय ||

बटुक कहे दीदी रखो, मुझे पड़े न काम |
मैं तो हूँ शिक्षार्थी, भिक्षाटन हरिनाम ||

जब नाविक को चढ़ गया, रात्री अतिशय ताप |
जड़ी बटुक की कर गई, कम उसका संताप ||

 
रिश्तों से रिसता रहे, दंभ स्वार्थ शठ-नीत ।
दोनों मन विश्वास हो, श्रृद्धा प्रेम पुनीत ।

श्रृद्धा प्रेम पुनीत,  बड़ी भंगुरता इनमे ।

लगे कांच जो ठेस, बिखर जाता है छिन  में ।

आये मुश्किल काल, चाल न चलिए भैया ।

हाथ पकड़ हर हाल, चलो तुम चढ़ा घुडैया ।।




पानी  ढोने का  करे,  जो बन्दा  व्यापार  |
मुई प्यास कैसे भला, सकती उसको मार ||



लहरों के संग खेलना, लहरें जीवन देत |

लहरें ही हैं  जिंदगी, यही बैल हल खेत ||


गंगा उत्तरवाहिनी, बना है सुन्दर घाट |

नाव किनारे पर लगा, घूमी शांता हाट ||

परम बटुक करने लगे, राजनीति पर बात |
कितना होना चाहिए, कर का सद-अनुपात ||

उत्तरदायी राज्य-प्रति, या राजा प्रति होय |
मंत्री का क्या कार्य है, कहिये दीदी सोय ||

विधिसम्मत कैसे रहे, होय न्याय का राज |
राज-पुरुष के दोष पर, उठे कहाँ आवाज ||

प्रमुख विराजें ग्राम में, अंकुश का क्या रूप |
जन कल्याणी कार्य के, कैसे होंय स्वरूप ||

लम्बी चर्चा हो रही, विद्वानों की राय |
राज पक्ष प्रस्तुत करे, दीदी दे समझाय ||

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