सर्ग-5 : इति
भाग-1
चंपा-सोम
कई दिनों का सफ़र था, आये चंपा द्वार |
नाविक के विश्राम का, बटुक उठाये भार ||
राज महल शांता गई, माता ली लिपटाय |
मस्तक चूमी प्यार से, लेती रही बलाय ||
गई पिता के पास फिर, पिता रहे हरसाय |
स्वस्थ पिता को देखकर,फूली नहीं समाय ||
क्षण भर फिर विश्राम कर, गई सोम के कक्ष |
रूपा पर मिलती वहाँ, धक्-धक् करता वक्ष ||
गले सहेली मिल रही, पर आँखों में चोर |
सोम हमारे हैं कहाँ, अचरज होता घोर ||
किन्तु सोम आये नहीं, किया प्रतीक्षा खूब |
शांता शाळा को चलीं, इन्तजार से ऊब ||
शाला में स्वागत हुआ, मन प्रफुल्लित होय |
अपनी कृति को देखकर, जैसे साधक सोय ||
आदरेया आत्रेयी, गले लगाती आय |
बाला कुछ संकोच वश, खुद को रहीं छुपाय ||
नव कन्याएं देखतीं, कौतूहल वश खूब |
सन्यासिन के वेश में, पूरी जाती ड़ूब ||
आनन्-फानन में जमे, सब उपवन में आय |
होती संध्या वंदना, रूपा कह समझाय ||
परिचय देवी का दिया, दिया ज्ञान का बार |
महाविकट दुर्भिक्ष से, सबको गई उबार ||
यह है अपनी शांता, इनका आशीर्वाद |
कन्या शाला चल पड़ी, गूंजा शुभ अनुनाद ||
पुत्तुल-पुष्पा थीं बनी, तीन वर्ष में मित्र |
मात-पिता के शोक में, स्थिति बड़ी विचित्र ||
ज़िंदा है माँ जानता, इसका मिला सुबूत ।
आज पौत्र को पालती, पहले पाली पूत ।
पहले पाली पूत, हड्डियां घिसती जाएँ ।
करे काम निष्काम, जगत की सारी माएं ।
किन्तु अनोखेलाल, कभी तो हो शर्मिन्दा ।
दे दे कुछ आराम मान कर मैया जिन्दा ।।
दे दे कुछ आराम मान कर मैया जिन्दा ।।
कौला-सौजा राखती, कन्याओं का ध्यान |
पाक-कला सिखला रहीं, भाँति-भाँति पकवान ||
कामकाज में लीन है, सुध अपनी विसराय |
उत्तम प्राकृत मनुज की, ईश्वर सदा सहाय ||
भले नागरिक वतन को, करते हैं खुशहाल |
बुरे हमेशा चाहते, दंगे क़त्ल बवाल ||
भले नागरिक वतन को, करते हैं खुशहाल |
बुरे हमेशा चाहते, दंगे क़त्ल बवाल ||
दोनों बालाएं मिलीं, शांता ले लिपटाय |
आंसू पोंछे प्रेम से, रही शीश सहलाय ||
क्रीडा कक्षा का समय, बाला खेलें खेल |
घोड़ा आया सोम का, रूपा मिले अकेल ||
शांता को देखा वहां, आया झट से सोम |
छूता दीदी के चरण , दिल से कहता ॐ ||
चेहरे की गंभीरता, देती इक सन्देश |
हलके में मत लीजिये, हैं ये चीज विशेष ||
दीदी अब घर को चलो, माता रही बुलाय |
कई लोग बैठे वहाँ, काका काकी आय ||
सौजा कौला मिल रहीं, रमणी है बेचैन |
दालिम काका भी मिले, आधी बीती रैन ||
नाव गाँव का कह रही, वो सारा वृतांत |
सौजा पूंछी बहुत कुछ, दालिम दीखे शांत ||
पर मन में हलचल मची, जन्मभूमि का प्यार |
शाबाशी पाता बटुक, करे ग्राम उद्धार ||
रमणी से मिलकर करे, शांता बातें गूढ़ |
रूपा तो हुशियार है, बना सके के मूढ़ ||
अगले दिन रूपा करे, बैठी साज सिंगार |
जाने को उद्दत दिखे, बाहर राजकुमार ||
शांता आकर बैठती, करे ठिठोली लाग |
सखी हमारी जा रही, कहाँ लगाने आग ||
सुन्दरता को न लगे, बहना कोई दाग |
अपनी रक्षा खुद करे, रखे नियंत्रित राग ||
रूपा को न सोहता, असमय यह उपदेश |
आया अंग नरेश का, इतने में सन्देश ||
अजब गजब अंदाज है, बात करें चुपचाप ।
इक जगह पर हों खड़े, खुद की सुन पदचाप ।
खुद की सुन पदचाप, गजब दीवानापन है ।
बारिश में ले भीग, प्रेम रस का आसन है ।
फिर मिलने की बात, आज मत करना भाई ।
सही जाय नहिं सही, कहीं से यह रुसवाई ।।
रूपा को वो छोड़कर, गई पिता के पास |
चिंतित थोडा दीखते, चेहरा तनिक उदास ||
करें शिकायत सोम की, चंचलता इक दोष |
राज काज हित चाहिए, सदा सर्वदा होश ||
आयु मेरी बढ़ रही, शिथिल हो रहे अंग |
किन्तु सोम न सीखता, राज काज के ढंग ||
उडती-उडती इक खबर, करती है हैरान |
रूपा का सौन्दर्य ही, खड़े करे व्यवधान ||
हुआ राजमद सोम को, करना चाहे द्रोह |
रूपा मम पुत्री सरिस, रोकूँ कस अवरोह ||
तानाशाही सोम की, चलती अब तो खूब |
राजपुरुष जब निरंकुश, देश जाय तब डूब ||
मंत्री-परिषद् में अगर, रहें गुणी विद्वान |
राजा पर अंकुश रहे, नहीं बने शैतान ||
पञ्च रतन का हो गठन, वही उठाये भार |
करें सोम की वे मदद, करके उचित विचार ||
शांता कहती पिता से, दीजे उत्तर तात |
दे सकते क्या सोम को, रूपा का सौगात ||
करिए इनके व्याह फिर, चुनिए मंत्री पाँच |
महासचिव की आन पे, ना आवे पर आँच ||
सहमति में जैसे हिला, महाराज का शीश |
शांता की कम हो गयी, रूपा के प्रति रीस ||
उत्तर मिलता है कभी, कभी अलाय बलाय ।
प्रश्नों का अब क्या कहें, खड़े होंय मुंह बाय ।
खड़े होंय मुंह बाय, नहीं मन मोहन प्यारे ।
सब प्रश्नों पर मौन, चलें वैशाखी धारे ।
वैशाखी की धूम, लुत्फ़ लेता है रविकर ।
यूँ न प्रश्न उछाल, समय पर मिलते उत्तर ।।
तुरत बुलाया भूप ने, आया जल्दी सोम |
दीदी पर पढ़ते नजर, रोमांचित से रोम ||
डुग्गी सारे देश में, एक बार बज जाय |
पांच रत्न चुनने हमें, कसके ठोक बजाय ||
राज कुंवर लेने लगे, जैसे लम्बी सांस |
दीदी की आई नहीं, अगली बातें रास ||
एक पाख में कर रहे, हम सब तेरा व्याह |
कह सकते हो है अगर, कोई अपनी चाह ||
पिता श्री क्यों कर रहे, इतनी जल्दी लग्न |
फिर रूपा के ख्याल में, हुआ अकेला मग्न ||
शुरू हुई तैयारियां, दालिम खुब हरसाय |
नेह निमंत्रण भेजते, सबको रहे बुलाय ||
रूपा तो घर में रहे, सोम उधर घबरात |
नींद गई चैना गया, रह रहकर अकुलात ||
टूटा दर्पण कर गया, अर्पण अपना स्नेह ।
बोझिल मन आँखे सजल, देखा कम्पित देह ।
देखा कम्पित देह, देखता रहता नियमित ।
होता हर दिन एक, दर्द नव जिस पर अंकित ।
कर पाता बर्दाश्त, नहीं वह काजल छूटा।
रूठा मन का चैन, तड़प के दर्पण टूटा ।।
टूटा दर्पण कर गया, अर्पण अपना स्नेह ।
बोझिल मन आँखे सजल, देखा कम्पित देह ।
देखा कम्पित देह, देखता रहता नियमित ।
होता हर दिन एक, दर्द नव जिस पर अंकित ।
कर पाता बर्दाश्त, नहीं वह काजल छूटा।
रूठा मन का चैन, तड़प के दर्पण टूटा ।।
शादी के दो दिन बचे, आये अवध-भुवाल |
कौशल्या के साथ में, राम लखन दोउ लाल ||
सृंगी तो आये नहीं, पहुंचे पर ऋषिराज |
पूर्ण कुशलता से हुआ, शादी का आगाज ||
जब हद से करने लगा, दर्द सोम का पार |
दीदी से जाकर मिला, विनती करे हजार ||
दीदी कहती सोम से, सुन ले मेरी बात |
शर्त दूसरी पूर कर, करे व्यर्थ संताप ||
मन की गाँठे खोल दे, पाए मधुरिम स्वाद ।
मन की गाँठों से सदा, बढ़ता दुःख अवसाद ।
बढ़ता दुःख अवसाद, गाँठ का पूरा कोई ।
चले गाँठ-कट चाल, पकड़ के माथा रोई ।
अपना मतलब गाँठ, भगा देते गौ-ठाँठे ।।
अपना मतलब गाँठ, भगा देते गौ-ठाँठे ।।
रविकर लागे श्रेष्ठ, खोलना मन की गांठें ।
ठाँठे = दूध न देने वाली
कौशल्या के पास फिर, गया सोम उस रात |
माता देखे व्यग्रता, मन ही मन मुस्कात ||
जो मुश्किल में रख सके, मन में अपने धीर |
वही सोच सकता तनय, इक सच्ची तदवीर ||
कौला के जाकर छुओ, सादर दोनों पैर |
ध्यान रहे पर बात यह, जाओ मुकुट बगैर ||
उद्दत जैसे ही हुआ, झुका सामने सोम |
कौला पीछे हट गई, जैसे गिरता व्योम ||
अवधपुरी की रीत है, पूजुंगी कल पांव |
छूकर मेरे पैर को, काहे पाप चढ़ाव ||
कन्याएं देवी सरिस, और जमाता मान |
पैर पूंज दे व्याह में, माता कन्यादान ||
हर्षित होकर के भगा, सीधे दीदी पास |
जैसे खोकर आ रहा, अपने होश-हवाश ||
नेह-निमंत्रण
परसे नैना |
जन्म-जन्म के
करषे नैना | |
प्रियतम को अब
तरसे नैना |
कितने लम्बे-
अरसे नैना ||
हौले - हौले
बरसे नैना |
जाते अब तो
मर से नैना ||
अब आये क्यूँ
घर से नैना |
जरा जोर से
हरसे नैना ||
दीदी के छूकर चरण, घुसता अपने कक्ष |
हर्षित होकर नाचता, जाना कन्या पक्ष ||
बहन-नारि-गुरु-सखी बन, करे पूर्ण सद्कर्म |
भाव समर्पण का सदा, बनता जीवन-धर्म ||
रानी सन्यासिन बने, दासी राजकुमारि |
जीती हर किरदार खुश, नारी विगत बिसारि ||
नारी सबल समर्थ है, कितने बदले रूप |
सामन्जस बैठा सहे, वर्षा साया धूप ||
शारीरिक शक्ति तनिक, नारी नर से क्षीन |
अंतर मन मजबूत पर, सहनशक्ति परवीन ।।
अंतर मन मजबूत पर, सहनशक्ति परवीन ।।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार ९/१०/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteअति सुन्दर काव्य कथा .
ReplyDeleteशांता की सूझबूझ ने भाई का प्यार और राज्य दोनो बचा लिये । रविकर जी आपका अनेक आभार इस काव्यमय कथा को हम तक पहुंचाने के लिये ।
ReplyDelete