23 October, 2012

दुर्जन होवे दिग्भ्रमित, समझ दीनता *अर्श-


*ताली मद माता मनुज, पाय भोगता कोष ।
पिए झेल अवहेलना, किन्तु बजाये जोश ।।
ताड़ी / चाभी / करतल ध्वनि 

 पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । 1।
 

करे बहाना आलसी,  अश्रु बहाना काम |
होय दुर्दशा देह की,  जब से लगी हराम  ।।

सज्जन सी छवि पा गया, कर शत सत-संवाद ।
दुर्जन छवि हित किन्तु है, काफी एक विवाद ।। 



 आदिकाल की नग्नता, गई आज शरमाय ।
 परिधानों में पापधी , नंगा-लुच्चा पाय ।। 

रविकर पूंजी नम्रता, चारित्रिक उत्कर्ष ।
दुर्जन होवे दिग्भ्रमित, समझ दीनता *अर्श ।।
*अश्लील 

6 comments:

  1. क्या बात, बहुत सुंदर


    विजयादशमी की बहुत बहुत शुभकामनाएं

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  2. दशहरा मुबारक भाई साहब !

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  3. पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
    जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । बहुत खूब .

    टिपण्णी जब जब हम करे गायब वह हो जाय

    इसका करो उपाय कविवर कुछ तो करो उपाय .

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  4. पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
    जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । 1।..........
    सुंदर प्रस्तुति ...विजयादशमी की हादिक शुभकामनाये,,,

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  5. पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
    जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । 1।

    वियोगी होगा पहला कवि ,आह से निकला होगा गान ,

    निकल कर अधरों से चुपचाप ,बही होगी कविता अनजान .

    पीड़ा में आनंद जिसे हो आये मेरी मधुशाला .

    आये रविकर की शाला .

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