उम्मीदों के चिराग़....!!!
उम्मीदों का जल रहा, देखो सतत चिराग |
घृत डालो नित प्रेम का, बनी रहे लौ-आग | बनी रहे लौ-आग, दिवाली चलो मना ले | अपना अपना दीप, स्वयं अंतस में बालें | भाई चारा बढे, भरोसा प्रेम सभी दो | सुख शान्ति-सौहार्द, बढ़ो हरदम उम्मीदों || |
हास्य रस के दोहे
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
हमें सोरठे मोहते, बढ़िया भाव बहाव ।
सकारात्मक डालते, रविकर हृदय प्रभाव ।।
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"इन्तज़ार-चित्रग़ज़ल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
शब्द उकेरे चित्र पर, रविकर के मन भाय ।
झूठी शय्या स्वप्न की, वह नीचे गिर जाय ।।
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SADA
सच से हरदम भागते, भारी विकट गुनाह |
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उसकी दूरी का ये अहसास खलता बहुत है
Reena Maurya
सहमा सहमा दिल रहे, मचले मन बइमान ।
दुसह परिस्थिति में फंसा, यह अदना इंसान ।
यह अदना इंसान, नहीं हिम्मत कर पाता ।
गर उद्यम कर जाय, तोड़ कर तारे लाता ।
बहना करो उपाय, नहीं अपना मन भरमा ।
कर ले तू सद्कर्म, रहे नहिं दिल यह सहमा ।। |
ब्लॉग जगत में केकड़ा वृत्ति भली नहीं है
Virendra Kumar Sharma
भरे पड़े हैं केकड़े, रविकर भी है एक |
टांग खिंचाई को गया, दिया नाक पर टेक | दिया नाक पर टेक, नाक बचाता घूमूँ | मिलता गया प्रसाद, गदोरी में ले चूमूँ | रहिये पर निश्चिन्त, ब्लॉग के हे उस्तादों | इंगित करिए खोट, टिप्पणी भर भर लादो || तर्क-संगत टिप्पणी की पाठशाला--
"क्षमा -याचना सहित"
हर लेख को सुन्दर कहा, श्रम को सराहा हृदय से,
अब तर्क-संगत टिप्पणी की पाठशाला ले चलो ||
खूबसूरत शब्द चुन लो, भावना को कूट-कर के
माखन-मलाई में मिलाकर, मधु-मसाला ले चलो ||
विज्ञात-विज्ञ विदोष-विदुषी के विशिख-विक्षेप मे |
इस वारणीय विजल्प पर, इक विजय-माला ले चलो | वारणीय=निषेध करने योग्य विजल्प=व्यर्थ बात विशिख=वाण
विदोष-विदुषी= निर्दोष विदुषी विज्ञात-विज्ञ= प्रसिध्द विद्वान
क्यूँ दूर से निरपेक्ष होकर, हाथ करते हो खड़े -
ना आस्तीनों में छुपाओ, तीर - भाला ले चलो ||
टिप्पणी के गुण सिखाये, आपका अनुभव सखे,
चार-छ: लिख कर के चुन लो, मस्त वाला ले चलो ||
लेखनी-जिभ्या जहर से जेब में रख लो, बुझा कर -
हल्की सफेदी तुम चढ़ाकर, हृदय-काला ले चलो |
टिप्पणी जय-जय करे, इक लेख पर दो बार हरदम-
कविता अगर 'रविकर' रचे तो, संग-ताला ले चलो |
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बहुत बढ़िया टिप्पणी की है आपने!
ReplyDeleteआभार!
सटीक टिप्पणी, आभार
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ReplyDelete"इन्तज़ार-चित्रग़ज़ल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
उच्चारण
शब्द उकेरे चित्र पर, रविकर के मन भाय ।
झूठी शय्या स्वप्न की, वह नीचे गिर जाय ।।
जो भी कहता रविकर ,हो शांत सुखाय .
ReplyDeleteआते नहीं है बाज़ रविकर कुण्डलिनी गीरी से ,खुद ही करे खुदी से देखो भाई दरिया दिली इनकी .जो खुद पे हंस सकता है वही महान होता है .दूसरे पे तो
सभी हँसते थूकते हैं .
आपकी काव्यमय प्रस्तुति और उमदा लिंक्स आभार रविकर भाई । ।
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