सीमा में घुसपैठ हो, शीत युद्ध दे छेड़ ।
विस्फोटों की बाढ़ है, पावे नहीं खदेड़ ।।
मजबूरी है क्या सरकारी ?
तो, कौन सा है दर्द भारी ?
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मारे फौजी, काट सिर, जाता है धड़ फ़ेंक ।
हरदम कड़ा जवाब दे, सत्ता अपनी नेक ।।
कांग्रेस के हम आभारी ।
तो, कौन सा है दर्द भारी ?
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नक्सल मारे पुलिस को, रखे पेट में बम्ब ।
मिले हमेशा ही उन्हें, हिमायती आलम्ब ।।
निभा रहे हैं नातेदारी ।
तो, कौन सा है दर्द भारी ?
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किश्तों में हैं काटते, जनता की वे जेब ।
मँहगाई गाई गई, झटक पचास फरेब ।।
सह लो फिर से यह मक्कारी ।
तो, कौन सा है दर्द भारी ?
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दिल से दिल्ली दामिनी, दाग रही है धोय ।
हुवे प्रभावी मोर्चे, अँसुवन बदन भिगोय ।।
मरे नहीं, पर अत्याचारी ।
तो, कौन सा है दर्द भारी ?
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ये तो सारे ही दर्द भारी हैं ... अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteदर्द भरी ये दास्तान तभी ख़त्म होगी जब हम नेतृत्व करने वाले सुयोग्य जन प्रतिनिधियों चुनाव करेगे और निक्कामो की फ़ौज से पीछा चुडायेगे ,जिनका न तो कोई राजधर्म है न कोई उद्देश्यपूर्ण कर्म है
ReplyDeleteकिसी को है फेसबुक का दर्द भारी तो किसी को चुभता ब्लाग का दर्द है भारी।
ReplyDeleteबात की बात कि बेबात की फिक्र ---विजय राजबली माथुर
बहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteफिर भी
ReplyDeleteकोउ नृप होय हमै का हानी कहती जनता सारी
और इसीलिए आपकी रचना प्यारी
"कुछ कहना है" तो कौन सा है दर्द भारी .....
बहुत ही उम्दा .....बधाई
बस दर्द ही दर्द हैं यहां..जिक्र किस-किस का करें..बहुत बढ़िया
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