लखनऊ से-
(१)
जाने ये क्या हो रहा, सपने पर इतबार ।
मर्यादा स्वाहा हुई, जीता धुवाँ-गुबार ।
जीता धुवाँ गुबार, खुदाई चालू आहे ।
रही हिलोरें मार, निकम्मी रविकर चाहें ।
बाबा तांत्रिक ढोंग, लगे फिर रंग जमाने ।
होय हाथ में खाज, खोजते लोग खजाने ॥
(२)
पारा बबलू का चढ़े, चढ़ा रहा आस्तीन ।
साँप भरे आस्तीन में, एक एक ले बीन ।
एक एक ले बीन, सामने बीन बजाये ।
भैंस खड़ी पगुराय, भैंस पानी में जाए ।
लड़ता हारा युद्ध, आज फिर कर्ण हमारा ।
शर शैय्या पे भीष्म, देश भी पारी पारा -
दोनों कुण्डियाँ बेहतरीन |
ReplyDeleteमेरी नई रचना:- "झारखण्ड की सैर"