भाग-2
घनाक्षरी
दीखते हैं मुझे दृश्य मनहर चमत्कारी
कुसुम कलिकाओं से वास तेरी आती है ।
कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है ।
देखूं शशि छबि भव्य निहारूं अंशु सूर्य की -
रंग-छटा उसमे भी तेरी ही दिखाती है |
कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर'
तेरे रूप-धूप का ही सुयश फैलाती है ||
दोहा
इंदुमती के प्रेम में, भूपति अज महराज |
लम्पट विषयी जो हुए, झेले राज अकाज ||1||
गुरु वशिष्ठ की मंत्रणा, सह सुमंत बेकार |
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया दरबार ||2||
क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष |
सुन्दरता पागल करे, मन-मानव मदहोश ||3||
अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |
क्रोध-प्यार बड़-बोल से, जाय जिंदगी हार ||4||
झूले मुग्धा नायिका, राजा मारे पेंग |
वेणी लागे वारुणी, रही दिखाती ठेंग ||5||
राज-वाटिका में रमे, चार पहर से आय |
तीन-मास के पुत्र को, धाय रही बहलाय ||6||
नारायण-नारायणा, नारद निधड़क नाद |
अवधपुरी के गगन पर, स्वर्गलोक संवाद ||7||
वीणा से माला सरक, सर पर गिरती आय ।
इंदुमती वो अप्सरा, जान हकीकत जाय ।।8||
एक पाप का त्रास वो, यहाँ रही थी भोग |
स्वर्ग-लोक पत्नी गई, अज को परम वियोग ||9||
माँ का पावन रूप भी, उसे सका ना रोक |
तीन मास के लाल को, छोड़ गई इह-लोक ||10||
विरह वियोगी जा महल, कदम उठाया गूढ़ |
भूल पुत्र को कर लिया, आत्मघात वह मूढ़ ||11|
कुण्डलियाँ
उदासीनता की तरफ, बढ़ते जाते पैर ।
रोको रविकर रोक लो, जीवन से क्या बैर ।
जीवन से क्या बैर, व्यर्थ ही जीवन त्यागा ।
किया पुत्र को गैर, करे क्या पुत्र अभागा ?
दर्द हार गम जीत, व्यथा छल आंसू हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो जग छोड़ उदासी ।।
दोहा
प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
जहाँ कहीं देना पड़े, करे व्यर्थ तकरार ||
कुण्डलियाँ
मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत मत हार ।
कायर भागे कर्म से, होय नहीं उद्धार ।
होय नहीं उद्धार, चलो पर-हित कुछ साधें ।
बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें ।
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से ।
जियो लोक हित मित्र, मिले नहिं कुछ मरने से ।।
दोहा
माता की ममता छली, करता पिता अनाथ |
रोय-रोय शिशु हारता, पटक-पटक के माथ ||12||
बहुत दिनों के बाद में , हुआ कृतार्थ आज |
ReplyDeleteयह रचना साहित्य के, सिर का सचमुच ताज ||
आपकी यह गवेषणात्मक खोज धर्म की पुस्तक में एक सराहनीय पृष्ठ है !