29 October, 2013

रावण के क्षत्रप : भगवती शांता : मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सगी बहन



रविकर लखनऊ में २०-१०-१३ : फ़ोटो मनु
 भाग-5
सोरठा
रास रंग उत्साह,  अवधपुरी में जम रहा |
उत्सुक देखे राह, कनक महल सजकर खड़ा ||

चौरासी विस्तार, अवध नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार,  हृदय कोष सन्तोष धन |

पाँच  कोस विस्तार, कनक भवन के अष्ट कुञ्ज |
इतने ही थे द्वार, वन-उपवन बारह सजे ||

शयन-केलि-श्रृंगार, भोजन-कुञ्ज-स्नान-कुञ्ज |
झूलन-कुञ्ज-बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख || 

चम्पक-विपिन-रसाल, पारिजात-चन्दन महक |
केसर-कदम-तमाल, नाग्केसरी-वन विचित्र ||

लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
  वृन्दावन नायाब, उपवन जूही माधवी ||  

घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करते ईर्ष्या देवता || 

रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
करे घात प्रतिघात, मुखड़े पर भय मृत्यु का || 

मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल || 

चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर || 

धरे सर्प का रूप,शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्य-पूर्वज ताड़ते || 

महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफ्कारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||  

रावण के षड्यंत्र, यदा-कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला || 

गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्यदेव के तेज से |  
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही || 

रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी  |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे || 

जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
 निकट अवध संभाग, खर-दूषण को सौंप दे ||  

खर-दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में || 

त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की ||  

कुत्सित नजर गढ़ाय, राज्य अवध को ताकते |
 खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को || 

गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, 'रविकर' छुपते पाख भर || 

जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे || 

भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||

 असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा || 

धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज || 

कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान ना दीखता || 

समझ गई हालात, बंद पेटिका याद थी  |
ढीला करके गात, जगह देख कूदी तुरत || 

लुढ़क गई कुछ दूर, झाड़ी में जाकर छुपी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी || 

मंत्री चतुर सुजान, दौड़ाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, झाड़ी में सौभाग्य से || 

लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे || 

खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका || 

रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर || 

रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में || 

दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||

3 comments:

  1. बहुत सुंदर !
    खूब नहीं होना चाहिये क्या पहली लाईन में खुब की जगह ?

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    1. मात्रा का फेर है -
      दो मात्रा का वजन चाहिए -
      जम रहा-
      कर देता हूँ-
      सादर-

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