प्रभु से जो डरकर चले, होय नहीं पथभ्रष्ट |
किन्तु दुष्ट रोमांच हित, चले बाँटते कष्ट ||1||
"आकांक्षा के पर क़तर, तितर बितर कर स्वप्न |
दें अपने ही दुःख अगर, निश्चय बड़े कृतघ्न || 2||
माटी का पुतला पुन:, माटी में मिल जाय |
फिर भी माटी डाल मत, कर उत्थान उपाय ||3||
राजनीति जब वोट की, अपने अपने स्वार्थ |
संविधान बीमार है, मोहग्रस्त है पार्थ || 4||
जीवन की संजीवनी, हो हौंसला अदम्य |
दूर-दृष्टि, प्रभु कृपा से, पाए लक्ष्य अगम्य ||5||
धर्म होय हठधर्म जब, कर्म होय दुष्कर्म |
शर्म होय बेशर्म तब, भेदे नाजुक मर्म ||6||
रहो इधर या उधर तुम, रहना मत निष्पक्ष |
डुबा अन्यथा दें तुम्हें, उभय पक्ष अति-दक्ष || 7||
देह नेह दुःख गेह है, किंचित नहिं संदेह |
देह चाहती मेह पर, होवे "रविकर" *रेह ||8||
खार मिली हुई मिटटी / ऊसर
वाह, बहुत ही सटीक और सारगर्भित.
ReplyDeleteरामराम.
वाह...
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति..
सादर
अनु
"रविकर" जी की सुन्दर प्रस्तुति ..
ReplyDeleteगम्भीर।
ReplyDeleteआदरणीय, उत्कृष्ट दोहों के लिये बधाइयाँ...........
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